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(८७) और बोला 'कहो तरला! मेरे माथे पर हाथ रखकर, शपथ खाकर कहो"। तरला अधीर होकर कहने लगी हैं हैं बाबा जी, यह क्या करते हो ? छोड़ो छोड़ो इस चलती सड़क के बीच-"। उसने अपने दोनों पैर छुड़ा लिए । देशानंद भी धूल झाड़ता उठ खड़ा हुआ और बोला-'तो शपथ करो"। तरला-क्या शपथ करूँ? देशा०-यही कि मुझसे मुँह न मोड़ोगी। तरला-बाबा जी, बात बड़ी. भारी है। चटपट कुछ कह देना कठिन है । इस भरे यौवन में, इस मधुर वसंत में, किसी एक पुरुष से कैसे मैं कोई प्रतिज्ञा कर सकती हूँ ? देशानंद मन ही मन सोचने लगे, कि स्त्रीजाति का व्यवहार ही ऐसा है। किंतु इस समय कुछ कहता हूँ तो सारा बना बनाया खेल बिगड़ जायगा। अच्छा कुछ दिन सोच विचार लेने दो । जायगी कहाँ ? अब तो हाथ से निकल नहीं सकती। जिनानंद के पास तो झख मारकर इसे आना ही होगा। उधर तरला सोच रही थी कि असहाय के सहाय भगवान् होते हैं । वसुमित्र को मैं बड़ी लंबी चौड़ी आशा बँधा आई हूँ। उससे कह आई हूँ कि जैसे होगा वैसे छुड़ाऊँगी । पर किस उपाय से छुड़ाऊँगी, यह जब सोचती हूँ तब वार पार नहीं सूझता । पार लगानेवाले भगवान् ने यह अच्छा अवलंब खड़ा कर दिया है। इस बुड्ढे बंदर की सहायता से मैं वसुमित्र को छुड़ा सकूँगी । इसे यदि मैं नचाती रहूँगी तो मेरा कार्य सिद्ध हो जायगा । इसकी सहायता से मैं सहज में संघाराम के भीतर जा सकती हूँ और वहाँ इसे ललचाकर वसुमित्र को छुड़ाने की युक्ति रच सकती हूँ। उसे चुप देख देशानंद बोला "क्या सोचती हो, बोलो"। तरला-तुम किस ध्यान में हो ? देशा०-तुम्हारे ।