पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/९४

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अंगिरा

  • लेकिन, कितनी ही चीजें हैं जिनको हमें विषव त्याज्य समझना चाहिये। असुरोका शिश्न( लिंग )पूजा-धर्म हमारे लिये निंदनीय है। उनका जाति-विभाग हमारे लिये त्याज्य है, क्योकि उसके कारण सभी आदमी अपने जनकी रक्षाके लिये हथियार नहीं उठा सकते, आपसमें ऊँचनीचको भाव बढ़ता है। असुरोंके साथ रक्त-मिश्रण नहीं करना चाहियै, क्योंकि यह असुर बननेके लिये दर्वाजा खोल देगा, और फिर आर्योंमें भी नाना शिल्प, नाना व्यवसायकी छोटी-बड़ी जातियाँ बन जायेगी ।' ' | पाल-रक्त-सम्मिश्रणको तो सभी आर्य बहुत बुरा समझते हैं १३

ऋषि-"हाँ, किन्तु इसके लिये उतना ध्यान देनेको तैयार नहीं हैं । क्या असुर अथवा कोल स्त्रियोंके साथ आर्य समागम नहीं करते है वरुण-सीमान्त पर करते हैं, और असुरपुरॉकी वेश्याओंके पास तो हमारे भट आम तौर से जाते हैं ? | ऋषि-“इसका परिणाम क्या होगा ? वर्णसंकरता बढ़ेगी । असुरोंमें भी पीतकैश बालक-बालिकाये पैदा होंगी, जिन्हें भ्रम या धोखेमे पड़कर आर्य अपने भीतर ले लेंगे, फिर रक्तकी शुद्धता कहाँ रहेगी ? इसलिये रक-शुद्धताके वास्ते हमें स्त्री-पुरुष दोनों ओरसे पूरा ध्यान रखना होगा। यही नहीं, हमें आर्य जनपदमें दास-प्रथा नहीं स्वीकार करनी होगी, क्योंकि रक्तकी शुद्धताको नष्टं करनेके लिये इससे खतरनाक कोई काम नहीं । बल्कि, मैं तो कहूँगा ऐसी कोशिश करनी चाहिये, कि आर्य जनपदमें अनार्यों का वास न होने पाये। “सबसे बड़ा खतरा और सारी जुराइयोंकी जड़ है, असुरोंकी राजप्रथा, जिसका ही एक अंग है उनकी पुरोहित-अथा। असुर-जनको कोई अधिकार नहीं, असुर-राजा जो कहे उसीपर चलना इरएक असुर अपना धर्म समझता है । असुर-पुरोहित सिखलाता है कि जनताकी सभी बातोंका जिम्मा ऊपर देवताओं और नीचे राजाने ले रखा है, जनक कुछ कहने करनेका अधिकार नहीं । राजा स्वयं.धरती