पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/९२

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স্থতি -सहायतासे जंगल काटकर नये खेत बाद किये थे, जिनसे साल भरकै खानेके लिये गैहूँ पैदा हो जाता था। अभी बग-बगीचोंका रवाज ने था, किन्तु जगलमें जब फल पकनेका समय आता, तो अपनी शिष्य-मंडलीके साथ वह वहाँ फल जमा करनेके लिये चले जाते । खेत जोतने-बोलै-काटने, फूल-फल-काष्ट जमा करनेके समय ऋषि और उनके विद्यार्थी वलु और सुवास्तुके तटोंपर वने गीतको बड़े रागसे गाया करते । सारे गधारमें सबसे बड़ा अश्वत्थ ( अश्व-पालन स्थान ) ऋषि अंगिराका था। दूर दूर तक अपने शिष्यों और परिचितसे ढुंढवाकर उन्होंने उच्च जातिके घोड़े-घोड़ियोंको जमाकर उनके वंशकी वृद्धि की थी। सैंधव । सिंधु तटवर्ती ) घोड़ोंका जो पीछे सर्वत्र भारी नाम हुआ, उसका प्रारभ ऋषि अगिराके अश्वत्थसे ही हुआ था। इनके अतिरिक्त ऋषि अंगिराके पास हजारों गायें और मेड़ियाँ थीं । उनके शिष्योंको विद्याध्ययनके साथ साथ बराबर काम करना पड़ता था, जिसमें ऋषि भी समय समयपर हाथ बंटाते थे, यह जरूरी भी था क्योंकि इस प्रकार शिष्योको खाने-पहिननेकी कोई तकलीफ नहीं होने पाती थी। । तक्षशिलाके पूर्वके सारे पहाड़ सुजल, सफल, हरे-भरे थे। ऋषि अगिराके साथ उस वक्त वरुण और पालकी टोली गोष्ठकी देखभालकर रही थी। तलुओंके बाहर कुछ दूरपर लाल उजले बछड़े फुदक रहे थे, और ऋषि अपने शिष्योंकै साथ बाहर हरी घासपर बैठे हुये थे। ऋषिके बायें हाथमें बारीक ऊनकी पूनी थी, और दाहिना हाथ काठको बड़ी तकुलीको चला रहा था। शिष्योंमें भी कोई तकुली चलारहा था, कोई ऊन निकिया रहा था, कोई हाथों लम्बी पूनी तैयार कररहा था । आज ऋषि प्राचीन और नवीन, आर्य और अनार्य रीति-रवाजों, शिल्प-व्यवसायमें कौन ग्राह्य हैं, कौन त्याज्य हैं, इस बातको समझा रहे थे।

    • वत्सो ! सभी नवीन त्याज्य है, सभी प्राचीन ग्राम है, यह कहना,