पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/९१

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वोल्वासें गंगा के बीचवालीको महोंने आपसमें बाँट लिया, जो पीछे क्रमशः पूर्वं गंधार और मद् जन-पदके नामसे प्रसिद्ध हुये । इस आरंभिक देव( आर्य - असुर संग्राममें दोनों जातियोंने अमानुषिक क्रूरता दिखलानेमें होड़ लगा रखी थी, जिसका परिणाम हुआ कि गधारमें बिलकुल ही नहीं और अदमें बहुत कम असुर बच रहे। लेकिन समय, बीतनेके साथ आगे असुरोंका विरोध कम पड़ने लगा, और पीतकेशने भी अपनी युद्धक्रूरता कमकी । यही नहीं, बल्कि जैसा कि वरुण सौवीरने कहा था, पीतकेशोंपर असुरोंकी बहुतसी बातों का प्रभाव पड़ने लगा । ऋषि अंगिरा बलुतटसे चली आती आर्यपरंपराके बड़े पडित ही नहीं थे, बल्कि वह चाहते थे, किं आर्य अपने रक्त तथा दूसरे आचार-व्यवहारोंकी शुद्धताको न छोड़ें। इसीलिये पूर्वी गंधारने अश्वमांस भक्षण-जौ एक प्रकार छूट गया था। उन्होंने अश्व-पालनको उत्साहितकर फिरसे स्थापित किया। उनके इस आर्यत्व प्रेम, उनकी विद्या और युद्धविद्या चातुरीकी ख्याति इतनी बढ़ चुकी थी, कि दूरतम अर्यजनपदोंसें भी आर्यकुमार उनके पास शिक्षा ग्रहण करने के लिये आने लगे। किन्तु, उस वक्त किसीको क्या पता था, कि आगे चलकर गंधारपुरमें अंगिराको रोपा यह विद्या-अंकुर तक्षशिलाके रूपमें एक विराट वृक्ष बन जायेगा, जिसकी छाया और मधुर फलसे लाभ उठानेके लिये सैकडौँ योजन दूरसे चलकर आर्य विद्याप्रेमी आयेगे । ऋषि अंगिराकी आयु ६५ सालकी थी, उनके इक्त कैश, नाभि तक लटकती श्वेत चमकती दाढ़ी उनके प्रशान्त गभीर चेहरेपर बहुत आकर्षक मालूम होते थे। अभी लेखनी, स्याही और सुर्जपत्र इस्तेमाल करनेमें कई सदियोकी जरूरत थी, उनका सारा अध्यापन मौखिक हुआ करता था, जिसमें पुराने गीतों और कविताको विद्यार्थी दुहरा दुहराकर कंठस्थ करते थे। दूरके विद्यार्थी अपने साथ खाद्यसामग्री नहीं ला सकते थे, इसलिये ऋषि अंगिराको विद्यार्थियोंके भोजन-वस्त्रका प्रबंध करना पड़ता था। अंगिराने अपने पैतृक खेतोंके अतिरिक्त विद्यार्थियोंकी