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वोल्गा से गंगा

चल रही हैं। एक मर्द की आयु स्त्री कुछ अधिक होगी, शेष छब्बीस से चौदह वर्ष के हैं। बड़े मर्द के केश भी वैसे ही बड़े-बड़े तथा पौड-श्वेत है। उसका मुंह उसी रँग की घनी मूंछ दाढ़ी से ढका हुआ है। उसका शरीर भो स्त्री की भांति ही बलिष्ठ है, उसके हाथों में भी वैसे ही दो हथियार है। बाकी तीन मर्दों मे दो उसी तरह के घनी दाढी-मॅछों वाले किन्तु उम्र में कम हैं। स्त्रियों में एक बाईस, दूसरी सोलह से कम है। हम गुहा के चेहरों को देख चुके हैं,और दादी को भी, सबको मिलाने से साफ मालूम होता है कि इन सभी स्त्री-पुरुषों का रूप दादी के साँचे मे ढला हुआ है।

इन नर-नारियों के हाथ के लकड़ी, हड्डी और पत्थर के हथियारों और उनकी गभीर चेष्टा से पता लग रहा है कि वे किसी मुहिम पर जा रहे हैं। पहाड़ी से नीचे उतरकर अगुआ -स्त्री मा कहिए - बाई ओर घूमती है; सभी चुपचाप उसके पीछे चल रहे हैं। बर्फपर चलते बक्त चमड़े से उनके ढके पैरों से ज़रा भी शब्द नहीं निकल रहा है। अब आगे की ओर लटकी हुई ( प्राग्-भार पहाड़ ) बड़ी चट्टान है, जिसकी बगल मे कई चट्टानें पड़ी हुई हैं। शिकारियों ने अपनी गति अत्यंत मंद कर दी है। वे तितर-बितर होकर बहुत सजग हो गये हैं। वे सारे पैरों को वीरकर बहुत देर करके एक पैर के पीछे दूसरे पैर को उठाते, चट्टानों को हाथ से स्पर्श करते आगे बढ़ रहे हैं। मा सबसे पहले गुहा के द्वार-खुलाव पर पहुँची है। वह बाहर की सफेद बर्फ को ध्यान से देखती है,वहाँ किसी प्रकार का पद-चिह्न नहीं है। फिर वह अकेले गुहा में घुसती है, कुछ ही हाथ बढने पर गुहा घूम जाती है, वहाँ रोशनी कुछ कम है। थोड़ी देर ठहर कर वह अपने अभ्यस्त बनाती है. फिर आगे चढ़ती है। वहाँ देखती है तीन भूरे भालू – मा, बाप, बच्चा-मुॅह नीचे किये धरती पर सोये, या मरे पड़े हैं—क्योंकि उनमें जीवन का कोई चिह्न नहीं दीख पड़ता।

मा धीरे लौटी है। परिवार उसके खिले चेहरे को ही देखकर