पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/८९

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। बोलणासै गंगा 'यह तो बुरा होगा, वरुण ! "पिछले दो सौ वर्षों के असुर संसर्गसे आर्यों में उनकी कितनी ही बुराइयाँ आने लगी हैं, उनको देखकर बूढ़े-बूढ़े आर्य निराश हो रहे हैं। मैं निराश नहीं हूँ। मैं समझता हूँ, यदि आर्य-जनको अपनी पुरानी बाते ठीकसे समझायी जाये, तो वह पथ-भ्रष्ट नहीं हो सकता है गंधारनगर( तक्षशिला ) में अंगिरा नामके, सुना है, एक आर्य ऋषि (ज्ञान) हैं, वह आर्येकी पुरानी विद्याकै भारी ज्ञाता है। वह आर्यों को आर्यमार्गपर आरूढ़ करने के लिये शिक्षा देते हैं। मैंने आर्योंके विजयके लिए तलवार चलाई है, अब चाहता हूँ, आर्यत्वको रक्षाके लिए भी कुछ करूं।" "कैसा संयोग है, मै भी ऋषि अंगिराके पास ही जा रहा हूँ, उनसे युद्ध-विद्या सीखने ।'

    • किन्तु पाल ! तूने पूरबके आर्यजनकी बात नहीं बतलाई ११ "पूरबमें आर्यजन वनको आगकी तरह बढ़रहे हैं। इस गधारसे गेकी भूमिको हम मद्रोंने लिया है। उससे आगे मल्लोंने अपना जन-पद (जनकी भूमि ) बनाया है, इसी तरह, कुरु, पंचाल आदि जनोंने भी बड़े-बड़े प्रदेश अपने हाथों में किये हैं।

"तो वहाँ बहुत भारी संख्यामें आर्य जारहे होंगे ?

  • बहुत भारी संख्यामे नहीं, जितना ही आगे बढ़ते जाये, उतनी ही असुरों और दूसरोकी संख्या अधिक मिलती है।

दूसरे कौन मित्र १ असुर मंगुरके चमड़े या ताँबे जैसे वर्णके होते हैं। पूरबमें एक और तरहके लोग रहते हैं, जिन्हें कोल कहते हैं वह बिल्कुल कोयले जैसे काले होते हैं। ये कोल गाँवीमें भी रहते हैं, और जंगलों में मृगोंकी तरह भी । जंगली कोलोंके कितने ही हथियार पत्थरके होते हैं।” *"तो आर्य-जनों को अनायेंके साथ बहुत लड़ना पड़ता होगा । gटकर लड़ाई अब बहुत कम करनी होती है। आयेंके घोड़ों