पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/८५

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वोलासे गंगा **ऐसे इन्द्रको हमलोग कभी पसंद नहीं कर सकते ।" किन्तु, असुर ऐसे ही इन्द्रको पसंद करते आये थे। अपने राजाको वह मनुष्य नहीं देवता मानते थे, और उसकी जिन्दा पूजाके लिये वह जो जो करते रहे हैं, उसको सुनकर मित्र ! ३ विश्वास नहीं करेगा । “हाँ, मैंने भी देखा है, असुपुरोहित अपने लोगोंको गदहा बनाकर रखते हैं।" “हाँ, गदहेसे भी बढ़कर । सुना है न वह शिश्न ( लिंग ) और उपस्थको पूजते हैं। मैं मानता हूँ स्त्री-पुरुष आनन्दके ये दो साधन हैं, इनके द्वारा हमारी सन्तान आगे चलती है, किन्तु इनको साक्षात् या मिट्टी-पत्थरका बनाकर पूजना कितनी भारी मूर्खता है । *"इसमें क्या शक । और असुर राजा शिश्नदेवके भारी भक्त थे। किन्तु इसमे तो मुझे निरी चालाकी मालूम होती है। आखिर, असुर राजा और उनके पुरोहित मूर्ख नहीं होते, वह इम अर्थों से ज्यादा चनुर होते है। उनके नगरों जैसा नगर बनानेके लिये हमे उनसे बहुत सीखना पड़ेगा । उनकी पएय-वीथी { बाजार }, उनके कमल-शोभित सरोवर, उनकी उच्च अट्टालिकाये, उनके राजपथ ऐसी चीजें हैं, जिन्हें शुद्ध आर्य-भूमियोंमें नहीं पाया जा सकता। मैने उत्तर सौवीरके अनुर-परित्यक्त नगरौंको देखा है, और इस नवपराजित नगरको भी; इम आर्य उनके पुराने नगरोंको प्रति-सस्कार ( मरम्मत ) करके भी उस रूप में कायम नहीं रख सके, और यह नया नगर-जिसे कहते हैं, शबरने स्वयं बसाया थातो देवपुर जैसा है।” । देवपुर । देवपुर ! और पृथिवी पर किसीसे उपमा नहीं दी जा सकती मित्र ! एक परिवारके रहने लायक घरको ही ले लीजिये । इसमें सजे हुये एक या दो बैठकखाने, धूमनेषक (चिमनी ) के साथ अलग