पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/८४

यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

________________

अगिग पतला छरहर जवान । सिन्धुके तटपर अब भी असुरों के पुरदुर्ग देखनेको मिलते हैं। इनके भीतर रहकर कुछ सौ धनुर्धर हजारों शत्रुभटको पास आनेसे रोक सकते हैं। वस्तुतः ये असुरोंकी पुरियाँ अयोध्या ( अ-पराजेय ) थीं । और ऐसी अयोध्या पुरियों को तोड़नेवाला हमारा मधवा इन्द्र नहीं, अयं सेना महापराक्रमी थी।” “दक्खिनमें क्या अब भी असुरिक्रो बल मौजूद है, वरुण !

  • कहा नहीं, सागरतीरका उनका अन्तिम दुर्ग अभी हालमै ठूला हैं, इस युद्धमै मैं भी शामिल हुआ था” कहते हुये वरुणके अरुण मुखपर और अधिक लाली छिटक गई, और उसने अपने दीर्ध चमकीले पीले केशको पीछेकी ओर सहलाते हुये कहा असुरोंके अन्तिम पुरदुर्गका पतन हो गया ।

"तुम्हारा इन्द्र कौन था ?" इन्द्रका पद हमने तोड़ दिया है। तोड़ दिया है । "हाँ, क्योंकि इससे हम दक्षिणी आर्यों को डर लगने लगा। "डर क्यों ? इन्द्रका अर्थ हम सेना-नायक समझते हैं न १' हाँ ।” और सेना-नायकको आर्य अपना सब कुछ नहीं मानते। युद्धके समय उसकी आज्ञाको भले ही शिरोधार्य माने, किन्तु आर्य अपनी जन-परिषदको सर्वोपरि मानते हैं, जिसमे हर आर्यको अपने विचार खुलकर रखनेको अधिकार होता है।" हाँ, यह है।" । “किन्तु, इसके विरुद्ध असुरोंका इन्द्र या राजा सब कुछ अपने ही है, वह किसी जन-परिषद्को अपने ऊपर नहीं मानता। असुर-राजाके मुंहसे जो निकल गया, वही हर एक असुरको करना होगा, नहीं तो उसके लिये मृत्यु है.”