पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/८३

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वोल्गासै गंगा न मित्र ! हमारे मघवा इन्द्रने किस तरह असुरोंके सौ नगर-दुर्गों को तोड़ा था । सुना है, असुरोके नगर-दुर्ग लौह ( ताँदै ) के थे ? असुरोके पास लौह ज्यादा है, किन्तु नगर दुर्ग बनाने भरके लिये नही । मै नहीं समझता यह कथा कैसे फैली । असुरोंके मकान ईंटों-आगमे पकाई चौकोर किन्तु लम्बी अधिक---के होते हैं उनके नगरोंको जिस दीवार से घेरा गया रहता है, वह भी इंटकी होती है । यह ईंटें लौह ( लाल ) वर्णकी होती हैं, किन्तु लौह (ताम्र ) धातु और ईटोंमे इतना अन्तर है, कि उसे लौह नहीं कहा जा सकता ।” “लैकिन हम तो वरुण ! असुरोंके लौह-दुर्गको ही सुनते आते हैं।” “शायद ! इमारे इन्द्रको इन दुर्गों के तोड़नेमें जितनी शक्ति लगानी पड़ी, उसीकै कारण यह नाम पड़ा हो ।” | और शबरके पराक्रमकी भी तो बड़ी बड़ी कथायें सुनी जाती हैं, उसका समुद्रमें घर था, उसका रथ आकाशमे चलता था।" “थकी बात बिल्कुल गलत है। असुर यदि किसी युद्ध-विद्या सबसे निर्बल हैं, तो अश्वारोहणमें । आज भी उत्सवकै समय असुर अश्वरथकी जगह वृषभरय जोड़ते हैं। मैं तो समझता हूँ पाल | हमारे यह अश्व ही थे, जिनके कारण हम विजयी हुये, नहीं तो असुर-पुरोको जीत न सकते थे। शंबरको मरे दो सौ साल हो गये, किन्तु, मुझे विश्वास है, उसके पास अश्वरथ भी न रहा होगा, आकाशमें चलनेकी तो बात ही क्या तो शंबर यदि इतना साधारण शुत्र था, तो उसके जीतनेसे हमारे इन्द्रकी इतनी महिमा क्यों हुई ।”

    • क्योकि शंबर बहुत वीर था। उसके स्वर्ण-खचित लौह कवचको 'मैंने सौवीरपुरमें देखा है, वह बहुत ही दृढ़ और विशाल है। असुर,

आमतौरसे कदमे छोटे होते हैं । किन्तु शबर बहुत बड़ा था, बहुत लम्बा चौड़ा और शायद कुछ अधिक मोटा। और हमारा मघवा इन्द्र उससे