पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/८२

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६-अंगिरा स्थान–गधार (तक्षशिला), जाति-हिन्दी-आर्य कात-१८०० ई० पू० । बेकार है यह कापस वस्त्र, न इससे जोड़ा रुकता है, न वर्षासे चचाव ।' अपने भीगे कंचुकको इटा कंबल ओढ़ते हुये तरुणने कहा।

    • किन्तु, गर्मीकी ऋतुमे यह अच्छा होता है। दूसरे तरुणने भी कंचुकको किवाड़पर पसारते हुथै कहा। शाम होनेमें अभी काफी देर थी, किन्तु आवसथ ( पाथशाला ) में अगिके किनारे अभीसे लोग डटे हुये थे। दोनों तरुण घेयेमें बैठनेकी जगह गवाक्षके पास हवा ख्यालसे कम्बल ओढ़कर बैठ गये ।

पहिला तरुण-“हम अभी एक योजन जा सकते थे, और कल सवेरे ही गंधार-नगरमें । तक्षशिला ) पहुँच जाते, किन्तु इस पानी और इवाको क्या किया जाये ।। । दूसरा--"जाडौकी यह बदली और चुरी लगती है। किन्तु, जब नहीं होती तो हमारे किसान इन्द्रको पानी बरसानेके लिये प्रार्थनापर प्रार्थना करते हैं, और पशुपाल अधिक क्रदन करते हैं। पहिला–“सो तो है मित्र, सिर्फ पान्थही हैं, जो इसे नहीं पसंद करते। और कई सदा पान्थ भी तो नहीं रहता ।” फिर गर्दनके पीछे घावकै चड़े दागको देखकर कहा “तेरा नाम मित्र १५

  • पाल माद्र । और तेरा ?" “बरुण सौवीर । तो तु पूर्वसे आता है ?

“हाँ, मद्रोंमेसे, और तू दक्खिनसे १ वतला मित्र | दक्खिनमें, सुनते हैं, असुर अब भी आर्यों से लड़रहे हैं।” ‘सिर्फ समुद्रतटपर उनका एक नगर बचरहा था । जानता हैं,