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वोल्गासे गंगा

जाना पड़ता है। इस असुर-नगर को पीछे आर्यलोग पुष्कलावती (चार सहा),के नामसे पुकारने लगे और हम भी यहाँ इसी नामको स्वीकार कर रहे हैं। जाड़ेके मध्यमें स्वात, पंजकोरा तथा दूसरी उपत्यकाओंमें रहनेवाली पहाड़ी जातियाँ – पुरु, कुरु, गंधार, मद्र, मल्ल, शिवि, उशीनर आदि – अपने घोड़ों, कम्बलों तथा दूसरी विक्रेय वस्तुओंको लेकर पुष्कलावतीके बाहरवाले मैदानमें डेरे डालती थीं। यहीं असुर व्यापारी उनकी चीजोंको ले बदले में इच्छित वस्तुएँ देते थे। सदियोंसे यह क्रम अच्छी तरह चला आता था। अबके साल पुरुओंका सार्थ (कारवाँ) पुरुधानके नेतृत्वमें पुष्कलावती गया। इधर कई वर्षों से पहाड़ी लोगोंमें शिकायत थी कि असुर उनको बहुत ठग रहे हैं। असुर नागरिक व्यापारी इन पहाड़ियोंसे ज्यादा चतुर थे, इसमें तो शक ही नहीं। साथ ही वह इन्हें निरे उजड्ड जंगली समझते थे, जिसमें कुछ सत्यता भी थी; किन्तु पीले बालों, नीली आँखों वाले आर्य घुड़सवार कभी अपने को असुर नागरिकोंसे नीच माननेके लिए तैयार न थे। धीरे-धीरे जब आर्यों में से पुरुधान-जैसे कितने ही आदमी असुरों की भाषाको समझने लगे, और उन्हें उनके समाजमें घूमने का मौका मिला, तो पता लगा कि असुर आर्यों को पशु-मानव मानते हैं। यह आरम्भ था दोनों जातियोंमें वैमनस्यके फूट निकलने का।

असुरोंके नगर सुन्दर थे। उनमें पक्की ईंटोंके मकान, पानी बहने की मोरियाँ स्नानागार, सड़के, तालाब आदि होते थे। आर्य भी पुष्कलावतीकी सुन्दरतासे इंकार नहीं करते थे। किन्हीं-किन्हीं असुर तरुणियोंके सौन्दर्यको—नाक, केश, कदकी शिकायत रखते भी—वे मानने के लिए तैयार थे; किन्तु, यह कभी स्वीकार करने को तैयार नहीं थे कि देवदारोंसे आच्छादित पर्वत-मेखलाके भीतर काष्ठकी चित्र-विचित्र अट्टालिकाओंसे सुसज्जित, स्वच्छ गृह-पंक्तियों वाला मंगलपुर किसी तरह भी पुष्कलावतीसे कम है। पुष्कलावतीमें महीना-भर काटना भी उनके लिए मुश्किल हो जाता था और बार-बार अपनी जन-भूमि याद आती