पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/७४

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पुरुधान : "वह क्या अब तक घरपर बैठी होगी-१ • . . ' T.,"और इस ऊन और तंकलेको तो लाओ रख चलें ।” "इससे यज्ञमे बाधा नहीं पडनेकी ।" : इसीलिएतो उषा तुम्हें पसन्द नहीं करती । - • “पसन्दतो करती , किन्तु तुम मंगलपुरके तरुण यदि पसन्द करनेदों तब न १५ बात करते दोनों मित्र नगरसे बाहर यज्ञ-वेदीकी ओर जा रहे थे। जिस तरुण-तरुणीकी पुरुधानसे चार आँखे होतीं, वह मुस्कुरा उठता । पुरुधान उन्हें आँखोंसे इशाराकर मुंह फेर लेता । सुमेधकी नजरोने एक बार एक तरुणको पकड़ लिया, फिर क्या था, वह बड़बड़ाने लगा-- "मगलपुरकै कलंक है यह तरुण ।” 'क्या बात है, मित्र ! • मित्र-वित्र नहीं, मुझको देखकर हँसते हैं।" "यह बदमाश है मित्र, तुमतो जानतेही हो, इसकी बातको क्या लिये हो ।' “मुझे तो मंगलपुरमें भलामानुष कोई दिखलाईही नहीं पड़ता। • यज्ञ-वेदीकै पास विस्तृत मैदान था, जिसमे जहाँ-वहाँ मंच और देवदारके पत्तोंवाले खम्भोंपर तोरण-वन्दनवार देंगे थे, अमके बहुतसे स्त्री-पुरुष वैदीके आस-पास जमा थे; किन्तु अभी वह बडा जमावड़ा तो शामसे होनेवाला था जबकि सारे पुरुजनके नर-नारियोंका भारी मेला "मगलपुरमें लगेगा और जिसमे स्वात नदीके दूसरे तटके भद्र भी शामिल होंगे। । - "। उषाने दोनों जोड़ीदारोंको आते देखा और वह सुमेधके पास आकर उसके हाथको अपने हाथोंमें .ले तरुण-तरुणियोंका-सा • त्रैमाभिनय करते बोली| "प्रिय सुमेध ! सवेरेसे ढूँढती-ढूंढती मर गई, तुम्हारा कहीं पता नहीं है