पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/७२

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पुरुधान * ऐसाही सुना जाता है मित्र ! मैंने स्वयं उस वृक्षको नहीं देखा ।” सुमेरने तकलैको जाँघोंसे रगड़कर घूमनेके लिए फेक कनकी नई म्यूनी लगाते हुए कहा--कितने भाग्यवान होंगे वे लोग जिनके जंगलके वृक्षोंमें ऊन जमती है। क्या हमारे यहाँ यह वृक्ष नहीं लगाये जा सकते हैं सो मालूम नहीं । सर्दी-गर्मीको वह वृक्ष कितना बरदाश्त कर सकता है, इसे हम नहीं जानते; किन्तु सुमेध ! मांस तो वृक्षपर नहीं पैदा होता है । "जब किसी देशमें ऊन वृक्षपर पैदा होता है, तो किसीमै मास भी हो सकता है। और इसका दाम १ "दाम ऊनी कपड़ेसे बहुत कम ; किन्तु ऊनके बराबर यह ठहरता नहीं ।”

    • कसे खरीदा है'

"असुर लोगों के पास से। यहाँसे पचास कोसपर उनका देश है, वह लोग इसीका कपड़ा पहनते हैं।" "इतना सस्ता है, तो हम लोगभी इसे क्यों न पहनें " "किन्तु इससे जाड़ा नहीं जा सकता। फिर असुर कैसे पहनते हैं ? उनके यहाँ सर्दी कम पडती है, बरफ तो देखनेको नहीं मिलती। * तुम वाणिज्यके लिए पूर्व, उत्तर, पश्चिम न जा दक्खिनको ही क्यों जाते हो ? उधर नफा अधिक रहता है, और चीज़े भी बहुत तरहकी मिलती हैं; लेकिन एक बड़ी तकलीफ है-वहाँ बहुत गर्मी है, मधुर शीतल जलके लिए तो जी तरस जाता है । • लोग कैसे होते हैं पुरुधान १७ लोग नाटे-नाटे होते हैं, रंग ताँबे-जैसा । बड़े कुरूप । नाक तो, मालूम होती है, है ही नहीं-बहुत चिपटी-चिपटी भौंड़ी-भौंड़ी । और एक बहुत बुरा रिवाज है वहाँ, आदमी खरीदे-बेचे जाते हैं।”