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बोल्गा से गंगा - मैले कपोलो पर मोटी अरुण रेखा खींच दी थी। दादी ने अगिन के मुँह को चूम- पुचकार कर कहा- 'अगिन! मत रो। रोचना को मारती हूँ"---और एक हाथ को नंगी किन्तु वर्षों की चर्बीसे सिक्त फर्श पर पटका।अग्नि का ऊं ऊं" अब भी बन्द न था; और न बन्द थे आँसू | दादी ने अपनी मैली हथेली से आशुओं को पोंछते हुए अग्नि के कपोलों की अरुण पंक्ति को काला बना दिया। फिर रोते को बहलाने के लिए सूखे चमड़े के भीतर झलकती हुई ठठरियों के बीच कुम्हड़े की सूखीबतिया की भाँति चर्ममय लटकते स्तनों से लगा दिया अनि ने स्तन को मुँह में डाला, उसने रोना बन्द कर दिया। उसी समय बाहर से बातचीत की आवाज आने लगी । उसने शुष्क स्तन से मुँह खोचकर उधर झाँका । किसी की मीठी सुरीली आवाज़ आई-"अगिन – ? –१

अग्नि फिर रो उठा। दो जनियों ( स्त्रियों) ने सिर पर लादे लकड़ी के गट्ठरको एक कोने मे पटका। फिर एक रोचना के पास और दूसरी अगिन के पास भाग गई। अगिन ने और रोते हुए "मा-मा"कहा। मा ने दाहिने हाथ को स्वतन्त्र रखते हुए दाहिने स्तन के ऊपर साही के काँटे-से गधे सफेद बैल के सरोम चमड़े को खोलकर नीचे रक्खा जाड़े की भोजन-कृच्छता के कारण उसके तरुण शरीरपर मास कम रह गया था तो भी उसमें असाधारण सौन्दर्य था। उसके लाल और मै छुटे स्तन पर अरुण श्वेत छवि,ललट को बचाते हुए बिखरे हुए लट-विहीन पाडु- श्वेत केश, अल्प-मासल पृथुल वक्ष गोल गोल श्यामल-मुख स्तन, अनुदर कृश-कटि, पुष्ट मध्यम परिमाण नितम्ब, पेशींपूर्ण वर्तुल जंघा, अधावन-परिचित इलाकार पेंडुली। उस अष्टादशी तरुणी ने अगिनको दोनों हाथों मे उठाकर उसके मुख आँख कपोल को चूमा रोना भूल चुका था। उसके लाल होटों से सफेद दंतुलियाँ निकलकर चमक रही थीं, उसकी मुद्रित थीं, गालोंमें छोटे-छोटे गढ़े पड़े हुए थे। नीचे गिरे वृषभ-चर्म पर