पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/६८

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पुरहूत हथियार बनानेका इंतिजाम करनेके लिए दो लोहार दासको अपने यहाँ शरण दी । ऊपरी जन उनके साथ बहुत अच्छा बर्ताव करते थे, और उनकी सहायतासे वह लौह ( लाल धातु = तवा ) शिल्पमें निपुणता प्राप्त करने में सफल हुए । इस प्रकार मद्रों और पुरुओंमें कितने ही लोह-शिल्पी तैयार हो गये। अपने लोहार दासको लौटा देनेके लिए पड़ोसियोंने जबान ही नही बल्कि शस्त्रको भी इस्तेमाल करना चाहा; किन्तु निचले जनोंमें बनियापनके साथ-साथ योद्धाके पराक्रमकी कमी भी आ गयी थी। लड़ाई में सफल न होनेपर उन्होंने तवा देना बन्दकर दिया। किन्तु उन्हें जल्दी ही मालूम हो गया कि इससे उनका व्यापार ही चौपट हो जायगा-मद्रपुरु तो पिछले समयको खरीदी पतीलियाँ तथा दूसरे बर्तनोंसे अपने शस्त्र तैयार करने में एक पीढ़ीके लिए स्वतंत्र थे। | आखिर इद्र और उसके दोनों जनने मद्-पर्शको मिटा डालने का संकल्प किया । पुरुहूतने स्वयं भी लोहारका काम सीखा था, और उसके सुझावके अनुसार खड्ग भाले तथा बाण-फलमे कई सुधार हुए । उसने कितने ही चतुर बलिष्ठ भटकी छातियोंको चोटसे अचानेके लिए तबके वक्ष-त्राण बनवाये । | इन्द्रने तय किया कि पहले सिर्फ एक शत्रुको लिया जाय, और इसके लिए उसने पशुओंको चुना । जाड़ों में पशु अधिक संख्यामें व्यापारके लिए बाहर चले जाते थे, इन्दने इसी समयको सबसे अच्छा समझा। उत्तर मद्र और पुरुके योद्धाश्नोको उसने युद्ध-कौशल सिखलाया। यद्यपि पशुओं और मद्रोंकी शत्रुता चिरसे चली आती थी, किंतु उनको क्या पता था कि इस तरह अचानक उनके ऊपर शत्रुका ऐसा घातक आक्रमण होगा, जिसके कारण वक्ष-उपत्यकासे उनका नाम तक मिट जायगा । इन्द्रने स्वयं अपने नेतृत्वमें चुने हुए मद्र और पुरु-योद्धाओं के साथ आक्रमण किया । युद्धके उद्देश्यको पहचाननेमें देर न हुई, और समझ जाने पर पशु-प्राणको बाजी लगाकर बड़ी वीरतासे लड़े।