पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/६७

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वोगासे गंगा जनके कुछ लोगोंने भी सीधे व्यापार करनैकी कोशिशकी, क्योंकि उन्हें संदेह होने लगा था, कि उनको नीचेके पड़ोसी ठग रहे हैं; लेकिन वहुके नीचे जानेका रास्ता उन्हींको जन-भूमिसे होकर थी जिसे मद्र खोलना नही चाहते थे। कई बार इसको लेकर छोटे-मोटे झगड़े भी हुए। कितनी ही बार उत्तर मदों और पुरुओंने बाहर देशोंमें जानेके लिए दूसरे रास्ते निकालने चाहे, किंतु उसमें वे सफल नहीं हुए। नीचे ऊपरके जनकै इस सघर्ष में एक खास बात यह थी कि जहाँ नीचेवाले आपसमें मेल नही रख सकते थे, वहाँ ऊपरवाले जन मिलकर आक्रमण प्रत्याक्रमणकर सकते थे। इन युद्धोंमे अपनी वीरता और बुद्धिमानीके कारण पुरुहूत अपने जनका प्रिय हो गया था, और तीस सालकी छोटी आयुमे पुरु-जननै उसे अपनी महाफ्तिर चुन लिया था। पुरुहूतको साफ दीख रहा था कि यदि मद्रोंके इस व्यापारिक अन्यायको रोका नहीं गया तो ऊपरी जनों के लिए कोई आशा नहीं । ताँबेका प्रचार कम होनेकी जगह दिन प्रतिदिन बढ़ता जा रहा था; हथियार, बर्तन और आभूषणके लिए ही नहीं, अब तो लोग विनिमयके लिए मनों माँस या कम्बल ले जाने की जगह ताँबेक तलवार या बुरी ले जाना पसंद करते थे। पुरुहूतने अपने जनकी बैठकके सामने अपने दुःखका कारण इन नीचेके जनोका व्यापारिक अन्याय बतलाया । सभी सहमत थे कि मार्ग-कंटक, मौंको हटाये बिना वे उनके हाथकी कठपुतली बन जायेंगे । शायद वे दिन भी आये जब कि वे उनके दासों जैसे हो जाये । पुरु और उत्तर-मद्रके महापितरोकी इकट्ठा बैठक में भी लोग उसो निष्कर्ष पर पहुँचे। दोनों जनने मिलकर युद्धसंचालनके लिए पुरुहूतको अपनी एक सम्मिलित सेनापति सुना और उसे इन्द्रकी उपाधि दी । इस प्रकार पुरुहूत प्रथम इन्द्र था। पुरुहूतने बड़े जोरसे सैनिक तैयारी शुरू की । इन्द्र बनते ही उसने