पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/६४

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पुरुहूत मिट्टी पत्थरकी दीवारोंवाले सौ घर हो गये हैं। जब खेत नहीं थे, तब हमारे चलते फिरते घर, चलते फिरते ग्राम होते थे। जब खेत हो गये, तो उनके गैहूँ को हरिनौसे बचाओ, दूसरे पशुओंसे बचा। खेत क्या मनुष्यके बाँधनेके लिए बँटे हो गये हैं लेकिन वत्स ! मनुष्य एक जगह बाँधकर रखनेके लिए नहीं पैदा किया गया । जो वात देवोंने मानवोंके लिए नही बनायी उसे इन मद्रों और पर्शने बनाकर दिखाया था ।” किन्तु बाबा I क्या अब इस खेतीको हम चाहें तो छोड़ सकते हैं ? आज हमारा आधा भोजन धान्य है।" “हाँ, यह मानता हूँ वत्स I किन्तु धान्य हमारे पूर्वज नहीं खाते थे । यहाँसै पच्चीस कोस दक्खिन गेहूँ को जंगल है, वहाँ गैहूँ अपने आर जमता, अपने आप फलता, अपने आप कर जाता है। उसे गाये खातीं, उनका दूध बढ़ जाता है, घोड़े खाते हैं और खूब मोटे हो जाते हैं। हर साल हमारे पशु वहाँ जाते हैं। धरती माताने धान्योंको दमौके लिए नहीं पैदा किया—उनके दाने हमारे खेतवाले गेहूंसे छोटे-छोटे होते हैं-धरतीने इन्हें पशुओंके लिए बनाया था। मुझे डर लगता है कि कहीं जंगली गेहूँ नष्ट न हो जायें। हमारे खानेकै लिए वत्स ! ये गायें हैं, घोड़े हैं, मैड़-बकरियाँ हैं; जंगलमें भालू, हिरन, सूअर कितनी ही तरहके शिकार हैं, द्राक्षा आदि कितने तरहके फल हैं। यह सब आहार धरती माता हमे खुशीसे देती थी, किन्तु बुरा हो इन मद्रों, पशुओका इन्होंने पुराना सेतु तोड़ नया रास्ता बनाया, जिससे मानवों पर देबका कोप उतरा। अभी वत्स ! न जाने वहुवासियोंके भाग्यमे क्या क्या वदा है। मैं तो पच्चीस सालसे डाँडा छोड़ ग्राममें नहीं गया । जाड़ोंमें थोड़ा नीचे एक झोपड़ी में चला जाता हूँ। क्या जाऊँ सभी लोग पूर्वजोंके बाँधे सेतुको तोड़ फेंकना चाहते हैं। पूर्वजोंके मुंहसे निकली वाणीका भी मैं इतने दिनोंसे गोप रहा हूँ, अब भी जिसको सीखना होता है, वह यह मेरे पास आता है। किन्तु