पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/६१

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वोलासे गंगा तृण खा लेंगे। इसके आस-पास मनुष्यों और पशुओंके पैशाब और "पाखाने दिखलायी पड़ने लगेंगे, उस समय हम इस जगहको छोड़ दूसरी जगह चले जायेंगे । वहाँ नये हरे-हरे तृण अधिक होंगे, वहाँ धरती, पानी, हुवा अधिक शुद्ध होगी ।” । | हाँ बाबा ! मैं भी ऐसी ही धरतीको पसन्द करता हूँ। ऐसी धरती पर मैरी बंशी ज्यादा सुरीली आवाज़ निकालती हैं । ठीक कहा वत्स ! पहले हम इन्हीं तम्बुओंके झुण्डको आम कहते थे, और ये झुण्ड एक ही जगह साल भर क्या, तीन महीने भी नहीं रहते थे, किंतु आजकै गाँव पुत्र-पौत्र सौ पीढीके लिए बनते हैं। पत्थर, लकड़ी, मिट्टीकी दीवारें उठाते हैं, जिनसे हवा भीतर नहीं आ सकती । पत्थर, लकड़ी, फुसकी छत पाटते हैं, जिसके भीतर हवा क्या जायगी १ आज कहनेके लिए अग्निको देवता, धायुको देवता, कहते हैं, । किंतु आज उनके लिए हमारे हृदयमें वह सम्मान नहीं है। इसीलिए आज कितनी नयी-नयी बीमारियाँ होती हैं । हे मित्र ! हैना सत्य ! है अयि ! तुम जो इन मानवौंपर कोप दिखलाते हो, सो ठीक ही करते हो ।” किंतु बाबा ! इन अयः-कुठारों, अथः-खड्गों, अयः-शल्यौंको छोड़ और हम जिंदा कैसे रह सकते हैं। इन्हें छोड़ दें, तो शत्रु हमें एक दिनमैं खालायें है। 'मैं मानता हूँ वत्स ! दो महीनेका भोजन या आधी जिंदगीकी सवारीवाले धोडेको खुशी-खुशी बॅचकर लोगोंने अयः-खड्ग नहीं खरीदा । वहु-माताकी कोखमें दाग लगाया, निचले मद्रों और पशुओने । वहु-रोद (नदी) कहाँ तक जाता है मैं नहीं जानता, कोई नहीं जानता । ऐसे ही झूठ बकनेवाले कहते हैं कि पृथिवी के छोरपर जो अपार पानी है, उसमें जाता है । हाँ, यह मालूम है, मद्रों और पशुओंकी भूमि खतम होते ही वस्तु-रोद पहाड़ छोड़ मैदानमें चला जाता है, और आगे झूठ बोलनेवाले देव-शत्रुओँकी भूमि है। कहते हैं, वहाँ बड़ी