पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/५९

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चोलासे गंगा तम्बू या फुसके झोपड़ोंके थे | जहाँ नीचे ढालू या खड़ी पहाड़ी भूमिपर घने देवदारुका जंगलही जंगल दिखलायी पड़ता था, वहाँ यहाँ डाँडेके ऊपर वृक्षोंका नाम नहीं था, जमीन अधिकतर चौरस थी, जिसपर हरी घासका मोटा फर्श बिछा हुआ था। इसी हरे मैदानमें कहीं मैड़े, कहीं गाये, और कहीं घोड़े चर रहे थे, जिनके बीचमें कहीं-कहीं छोटे-छोटे बछड़े और बड़े अलाँग मारकर खेल दिखला रहे थे। इसी भूमिको देखकर तो भाद्र बाबाका कहना था मनुष्य एक जगह बांधकर रखनेके लिए नहीं पैदा किया गया । भाद्र बाबाको तम्बू इस मासमें यहाँ है, जब घास कमही जायगी तो दूसरी जगह चला जायगा । दूध, दही, मक्खन, मास की यहाँ अधिकता है। तम्बूके भीतर यही चीजें भरी हुई हैं। हर पन्द्रह-बीस दिनपर गवसे आदमी आता है और यहाँसे मक्खन तथा माँस ले जाता है। जाड़ोंमें इस डडेपर बर्फ पड़ जाती है। बाबाकी चले तो वे तब भी यहीं रहें, किन्तु पशु बर्फ खाकर तो नहीं रह सकते, इसीलिए घूम-घुमौके रास्तेसे वे थोड़ा नीचे जंगलवाले प्रदेशमे चले आते हैं, और पशु सब नीचे गाँवमे। बाबा गाँवपर चलनेका नाम लेनेपर मारने दौड़ते हैं। अभी दिन था जब दोनों पथिक बाबाके तम्बूपर पहुंचे थे, इसलिये सामान उतारनेके बाद जहाँ बाबाने हँसाते हुए सामने घोड़ीके दूधको सुरा ( कुमिस् ) का काष्ठ-कुप्पा और प्याला रखा कि तीन चार प्यालेमें ही रास्तैकी सारी थकावट दूरहो गयी। शामको बछड़ों और बच्छेको लिये रोचनाके भाई बहिन तथा गाँवके दूसरे तरुण चरवाहे भी आ गये । इधर रोचनाने बाबासे पुरुहूतकी वंशीका गुण बखाना था। फिर बाबा जैसे मौजी जीव पुरुहूतको कैसे छोड़ते हैं उन्हें और गोत्र ( गोष्ठ) के सारे तरुणोंको वंशी बहुत पसंद है। रातको जब नृत्य हुआ तो पुरुहूतने वहाँभी अपनी करामात दिखलायी ।। सबेरे पुरुहूतने जानेका नाम लिया, किन्तु बाबा इतनी जल्दी क्य जाने देने लगे। दोपहरके भोजनके बाद बाबाने अपनी कथा शुरूकी,