पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/५८

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पुरुहूत बड़ी घृणा होती है ।—रोचनाने अपने काष्ठ-चषकको निकाल कर नीचे रख दिया। - तीन भागमे एक भाग माँस झब्बरको दिया गया, दोनोंने देरमें खान-पान समाप्त किया। चारों ओर अंधेरेकी घनी चादर तन गयी थी, मोटे लक्कड़ोंकी धधकती आगको लाल रोशनी और उसके आस-पासकी थोड़ीसी जगहके सिवा और कुछ दिखायी नहीं देता था। हाँ, कुछ -ध्वनियाँ उस वक्त सुनाई देती थीं, जो कीड़ों तथा दूसरे क्षुद्र जन्तुओं की मालूम होती थीं। बात और बीच-बीचमें वशीकी तान चलती रही । आखिर सत्तू बालकर कई घटेमे पका सूप भी तैयार होगया। दोनोंने गर्मा-गर्म सूप अपने चषकोंसे पिये। बड़ी रात जानेपर सोनेका प्रस्ताव हुआ। रोचना चमका बिछौना तैयारकर अपने कपड़ोंको उतारने लगी; पुरुहूतने आगपर और लकड़ियाँ साजदीं, पशुओंके सामने घास डाल दिया, फिर वनके देवताओंकी प्रार्थनाकर कपड़ोंको उतार सो गया। दूसरे दिन सवेरे उठे तो दोनों अनुभव करते थे, रात भरहीमे जैसे उन्होंने सगै बहिन भाई पा लिये। रोचनाके उठनेपर पुरुहूत अपनेको रोक नहीं सका और बोला मेरा मन वेरा मुख चूमनेको करता है रोचना स्वसर (बहिन} !” और मेरा भी पुरु ! इस जगत्मे हमने बहिन भाई पाये ।” पुरुहूतने उसके बिखरे बालोंको पीछेकी ओर सम्हालते हुए रोचनाके दोनों गालोंको चूम लिया। दोनोंके मुख प्रसन्न और नेत्र गीले धे। मुख धोकर वे थोड़ा सत्तू और सूखा माँस खाकर पशुओंको लादकर चल पड़े। बीच-बीचमे दो-तीन जगह वे बैठे भी, किन्तु बात-चीतमै समय • इतनी जल्दी बीता कि उन्हें मालूम नहीं हुआ कब डाँडेपर पहुँचे और कब माद्र बाबाके पास ! रोचनानै परिचय दिया और बावाने पुरुओंकी वीरताकी प्रशंसा करते हुए पुरुहूतका स्वागत किया। - - इस डाडेपर मद्रका छोटा-सा गाँव वस गया था, जिसके सभी घर