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वोल्गासे गंगा पुरुहूत ! १ बंशी बजाता है ? यह वंशी मुझे बहुत प्यारी है, रोचना ! जान पड़ता है। मैरा प्राण इसी वंशीमें बसता है ।

  • मुझे वेशी सुना पुरुहूत ।” “अभी या खानेके बाद १३ जरा-सा अभी ।"

“अच्छा--" कह पुरुहूतने वंशीको ओंठमें लगा जब आठों उँगलियोंको उसके छिद्रों पर फेरना शुरू किया तो विशाल वृक्षकी छायासे निकलकर पैर फैलाते संध्या-अन्धकारकी स्तब्धतामें दिगन्तको प्रतिध्वनित करनेवाली उस मधुर-ध्वनिने चारों ओर जादू-सा फैला दिया । रोचना सब सुध-बुध भूल तन्मयहो उस ध्वनिको सुन रही थी। पुरुहूत किसी उर्वशीके वियोगमें व्याकुल पुरुरवाके व्यथापूर्ण गानको वंशीमें गा रहा था। गान बन्द होनेपर रोचनाको मालूम हुआ, वह स्वर्गसै एकाएक धरतीपर रख दी गयी । उसने आँखों में आनन्दालु भरकर कहा--- “पुरुहूत ! तेरा वंशीका गान बहुत मधुर है, बड़ाही मधुर । मैंने ऐसी वंशी नही सुनी । कितनी प्यारी है यह लय ।। लोग भी ऐसाही कहते हैं, रोचना ! किन्तु, मैं उसे नहीं समझ सकता । वंशीके ओठोंमें लगातेही मैं सब कुछ भूल जाता हूँ। यह वशी मेरे पास है, फिर मुझे दुनियामें किसी चीजकी चाह नहीं रह जाती । "अच्छा आ, पुरु ! अब भोस ठेढाहो जायेगा । |."और रोचना | मनै चलते वक यह द्राक्षा-सुरा दी थी। थोड़ी है किन्तु मासके साथ पीनेमें अच्छी होगी । सुरा प्रिय है, तुझे पुरु ।” **प्रिय नहीं कह सकता, रौचना ! प्रिथमें तृप्ति नहीं होती, किन्तु मैं तो आँखोंमें इल्की लाली उछलनेके बाद एक पॅटभी नहीं पीसकता। “यही हाल मैरा भी है पुस । नशेमें चूर आदमीको देखकर मुझे