पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/५५

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५४ वोलासे गगर बोझको अलग किया और उनकी काठी खोल दी । गदहोंने दो तीन लोट लगायीं, फिर धासमें चले गये । भेड़ोंकी लादियोंको उतारनेमें कुछ देर लगी, क्योंकि भेड़ों की जबर्दस्ती पकड़ कर लाना पड़ता था । रोचना मशकले चश्मे पर पानी भरने गथी । पुरुहूतने पत्ते और छोटी लकड़ियां डाल आगको बाल दिया, और फिर बड़ी लकड़ियोंको लगा बड़ी आग तैयार करदी। जब रोचना पानी भर कर लौटी, तो पुरुहूत तबेकी पतली सामने रख गायकी चौथाई टाँगको चाकूसे काट रहा था, रोचनाको देखकर बोला---

    • कल शाम तक हम ऊपर पहुँच जायेंगे रोचना ! तेरा गोष्ठ बहुत दूर तो न होगा १ ।

“जहाँ हम डाँडे पर पहुँचते हैं, तो वहाँसे तीन कोस पूरब है। "और मेरा ॐ कोस पूरब । तब तो तेरे बाबाका गोष्ठ रोचना । मेरे रास्ते पर ही पड़ेगा ।” “तो पुरुहूत तु बाबाको देख पायेगा । मैं सोचती थी बाबाकी तुझसे कैसे भेट हो ।

  • एक ही दिन तो और है, इसीलिए एक चौथाई रान काफी समझी । यह पिछली रान है रोचना ! बेहद (बहिला) की ।” ।
  • मेरे पासे अश्व-बछेड़े--की आधी टाँग है, पुरुहूत ! आज-कल मांस ज्यादा देर होनेपर बसाने भी तो लगता है ।।

नमक डाल कर मासको पकाना कैसा रहेगा है। “बहुत अच्छा और मेरे पास गोडी भी हैं पुरुहूत ! मांस, गोडी और पीछे थोड़ा-सा सत्तू मिलाने पर अच्छा सूप तैयार हो जायेगा, सोते वक्त सूप तैयार मिलेगी ।" "मैं अकेला होता तो रोचना ! सूप न बनाता, बहुत देर लगती है; किंतु तब तक पशुओंके बाँधने, बातचीत करने में लगे रहेंगे । “बाबा मेरे सूपको बहुत पसन्द करता है पुरुहूत ! और यह तावी की पत्नीली !