पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/५४

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पुराहून | रोचनाने भी "झवरा, झवरा !' कहा । वह आकर उसके पैरोंको सेंचने लगा, फिर जब रोचनाने उसकी पीठ पर हाथ दिया, तो झवर दुम हिलाते हुर उसके पैरोंमें बैठ गया । पुरुहूतने कहा-झबरा वहुत समझदार श्वक है रोचना ! और मजबूत भी ।" “हाँ, मैड़िया, भालू, चीता किसीसे नहीं डरता । मैड़ और गदहे अब काफी घास चर चुके थे, थकावट भी दूर हो गयी थी, इसलिए दोनों तरुण-पथिकने फिर चलना शुरू किया। झवरा उनके पीछे-पीछे चल रहा था। यद्यपि उनकी पगडंडी तिरछे काट कर जा रही थी, तो भी चढ़ाई तेज थी, इसलिए वे सधे पैर धीरे-धीरे आगे बढ़ सकते थे। पुरुहूत कहीं धरतीमें चिपकी लाल स्ट्राबरियोंको तोड़ता; कहीं करोदोंको, और रोचनाको भी देता । अभी अच्छे-अच्छे फल खूब पकने पर नहीं आये थे, पुरुहूतको इसकी बड़ी शिकायत थी। शाम तक वे इसी तरह बातें करते चढ़ते गये। सूर्यास्त हो रहा था, जब एक घने गुल्मके नीचेसे कल-कल करके बहते चश्मेको उन्होंने देखा । पास ही थोड़ी खुली जगह थी, जिसमें लकड़ीकै अधजले कुन्दे, राख और घोड़ोंकी लीद पड़ी थी । पुरुहूतने झुककर राखको कुरेदा, उसमें आग दबी हुई थी। उसने बहुत खुश होकर कहा “ोचना ! रातके ठहरनेके लिए इससे अच्छी जगह आगे नहीं मिलेगी। पासमें पानी है, घासकी अधिकता है, सूखे लक्कड़ पड़े हैं, और फिर आज सवेरै यहाँसे जानेवाले पथिकने आगको राखके नीचे दबा दिया है। “हाँ, पुरुहूत ! इससे अच्छी जगह नहीं मिलेगी । आज यहीं ठहरें । अगले चश्मे तक पहुँचने में अंधेरा हो जायगा ।” । पुरुहूतने बैठकर झट अपनी कंडीको पत्थरके सहारे धरती पर रख दिया, फिर रोचनाकी कंडीको उतारा। दोनोंने मिलकर गदहके