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वोल्गा से गंगा


आओ, पहाड़ी के सर्वोच्च स्थान के देवदारु पर चढ़कर चारो ओर देखें। शायद वहाँ बर्फ, धरती, देवदारु के अतिरिक्त भी कुछ दिखाई पड़े। क्या यहाँ बड़े-बड़े वृक्ष ही उगते हैं? क्या इस भूमि में छोटे पौधों, घासों के लिए स्थान नहीं है? लेकिन इसके बारे में हम कोई राय नहीं दे सकते। हम जाड़े के दो भागों को पारकर अन्तिम भाग में है। जिस बर्फ में ये वृक्ष गढ़े हुए-से हैं वह कितनी मोटी है, इसे नापने का हमारे पास कोई साधन नहीं है। हो सकता है, वह आठ हाथ या उससे भी अधिक मोटी हो। अबकी साल बर्फ ज़्यादा पड़ रही है, यह शिकायत सभी को है। देवदारु के ऊपर से क्या दिखलाई पड़ता है? वही बर्फ, वही वन-पंक्ति, वही ऊँची-नीची पहाड़ी भूमि। हाँ, पहाड़ीकी दूसरी ओर एक जगह धुआँ उठ रहा है। इस प्राणी-शब्द-शून्य अरण्यानी में धूमका उठना कौतूहलजनक है। चलो वहाँ चलकर अपने कौतूहलको मिटाये।

धुआँ बहुत दूर था, किन्तु स्वच्छ निरभ्र आकाश में वह हमें बहुत समीप मालूम होता था। चलकर अब हम उसके नज़दीक पहुँच गये हैं। हमारी नाक में आग में पड़ी हुई चर्बी तथा मांस की गन्ध आ रही है। और अब तो शब्द भी सुनाई दे रहे हैं—ये छोटे बच्चों के शब्द हैं। हमें चुपचाप पैरों तथा साँसकी भी आहट न देकर चलना होगा, नहीं तो वे जान जायँगे, और फिर न जाने किस तरहका स्वागत वे ख़ुद या उनके कुत्ते करेंगे।

हाँ, सचमुच ही छोटे-छोटे बच्चे हैं, इनमें सबसे बड़ा आठ साल से अधिक का नहीं है, और छोटा तो एक वर्षका है। आधे दर्जन लड़के और एक घर में। घर नहीं यह स्वाभाविक पर्वत गुहा है, जिसके पार्श्व और पिछले भाग अन्धकार में कहाँ तक चले गये हैं, इसे हम नहीं देख रहे हैं, और न देखने की कोशिश करनी चाहिए। और सयाने आदमी? एक बुढ़िया जिसके सन जैसे धूमिल श्वेत केश उलझे तथा जटाओं के रूपमें इस तरह बिखरे हुए हैं कि उसका मुँह उनमें ढँका हुआ है।