पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/४९

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४-पुरहूत। देश-नु-उपत्यका ( ताजिकिस्तान ) जाति-हिन्दी-ईरानी, काल-२१०० ई० पू० वस्तुकी घर्भर करती धारा बीचमे वह रही थी। उसके दाहिने तट पर पहाड़ धारासे ही शुरू हो जाते थे, किन्तु बाई तरफ अधिक ढालु होनेसे उपत्यका चौड़ी मालूम होती थी। दूर से देखनेपर सिवाय घन-हरित उत्तुंग देवदार-वृक्षोंकी स्याही के कुछ नहीं दिखलायी पड़ता था; और नजदीक आनेपर नीचे ज्यादा लम्बी और ऊपर छोटी होती जाती शाखाके साथ उनके वाण जैसे नुकीले शृङ्ग दिखलायी पड़ते थे। और उनके नीचे तरह-तरहकी वनस्पति, तथा दूसरे वृक्षमी थे । श्रीष्मका अन्त था, अभी वर्षा शुरू नहीं हुई थी। यह ऐसा महीना है, जब उत्तरी भारत के मैदानों में लोग गाँसे सख़्त परेशान रहते हैं, किन्तु इस सात हजार फीट ऊँची पार्वत्य-उपत्यकामे गर्मी मानों घुमनेही नहीं पाती । चतुके बाएँ तटसे एक तरुण जारहा था। उसके शरीरपर ऊनी कंचुक, जिसके ऊपर कई पर्त लपैश हुश्रा कमरबन्द था, नीचे कनी सुत्थन और पैरोंमें अनेक तनियोकी चप्पल थी। शिरके कंटोपको उसने उतारकर अपने पीठकी कड़ी पर रख लिया था, और उसके लम्बे चमकीले पिंगल केश पीठपर बिखरे हवाके हलके झोकोंमें जब तब लहरी उठते थे । तरुणकी कमरसे चमड़ेसे निपटा ताँबे का खड्ग लटक रहा था। उसकी पीठ पर वीरीकी पतली शाखाकी बुनी चोगानुमा कडी थी, जिसमें तरुणने बहुतसी चीजे, खुला धनुष तथा बाणोंसे पूर्ण तर्कश रखा था | तरुणके हाथ में एक डंडा था, जिसे कंडीकी पेदम लगा कर खड़ाहो वह कभी-कभी विश्राम करने लग जाता था--अब चड़ाई कड़ी होरही थी। उसके सामने छै मोटी-मोटी मैड़े चल रही थी, जिनकी