पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/४८

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अमृता । उतना सुभीता न था। उपत्यका रॉकरी होती गई थी और चढ़ाई कड़ी थी, तो भी प्राण बचानेके लिये नर-नारी घोड़ों पर भागे जा रहे थे। आखिर ऐसा भी स्थान आया, जहाँ घोड़ा आगे नहीं बढ़ सकता था। लोग पैदल चलने लगे। कुछ उनके बहुत नज़दीक आ गये थे । बच्चे, बूढ़े, स्त्रियाँ तेज़ीसे नहीं बढ़ सकते थे, इसलिये उन्हें भागने का मौका देनेके लिये कुछ कुरु-भट एक रॉकरी जगहमें खड़े हो गये । कुरु अपनी संख्याका पूरा इस्तेमाल नहीं कर सकते थे, इसलिये उन्हें इन पुरुओंसे रास्ता साफ करनेमे कुछ घटे लगे । पुरु और कुरु अब दोनों ही पैदल थे, किन्तु पुरुओंमें मर्द मुश्किलसे एक दर्जन रह गये थे। इसलिये वह कितनेही दिनों तक सारे पुरु परिवारकी रक्षा करते है उन्होंने एक दिन कुछ साहसी स्त्रियोंको लै, एक दुरूह पथ पकड़, वह उपत्यका छोड़ दी और पहाड़ोंको पार करते दक्खिनकी अर बढ गये । कुरुओंने जहाँ-तहाँ छिपे प्राणोंकी भिक्षा भाँगते पुरु बच्चों, वृद्धों और स्त्रियोंको पकड़ा। बन्दी बनाना इस पितृ-युगके नियमके विरुद्ध था, इसलिये बच्चेसे बूढ़े तक सारे ही पुरुषोंको उन्होने मार डाला। स्त्रियों को वह अपने साथ लाये । पुरुओंको सारा पशु-धन भी उनका हुआ । अब वह हरित रोद ( नदी ) उफ्त्यका नीचे से ऊपर तक कुरुकी चरागाह थीं। एक पीढ़ी तकके लिये महापितरने एकसे अधिक पत्नी रखने का विधान कर दिया और इसी वक्त कुरुओंम पहले पहल सुपक्षी देखी गई। * [* आजसे दो सौ पीढ़ी पहलेके एक आर्य कबीतेकी यह कहानी है। उस वक्त भारत और ईरानकी श्वेत जातियों का एक कवीता (जन) था और दोनों का सम्मिलित नाम आर्य था । पशु-पालन उनकी जीविका को मुख्य साधन था।]