पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/४६

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अमृताश्व ४३ घरके एक व्यक्ति के तौर पर । एक कुरुको दूसरे कुरुसे समानताका बर्ताव करना पड़ता । अमृताश्वके चलते-फिरते ग्राममे पचाससे ऊपर परिवार थे। आपसी झगड़ों, मामलों-मुकदमका फैसला महापितरको ही देखना पड़ता । फिर पानी, रास्ते और दूसरे सार्वजनिक कामको संचालन भी महापितर करता । और युद्धभेजो सदा सिर पर बैठा ही रहतासेनाका मुखिया बनना तो महापितरका सबसे बड़ा कर्त्तव्य था । वस्तुतः युद्धोंमें सफलता ही आदमीको महापितरके पद पर पहुँचाती। | अमृताश्व एक बहादुर योद्धा था । पक्थों, वाल्हीकों तथा दूसरे जनोंके अनेक युद्धों में उसने अपनी बहादुरी दिखलाई थी। मधुराको दिये वचनोंका उसने पालन किया । मधुराने अमृतश्विके साथ रीछ, भेड़िये और बाधके शिकार ही नहीं किये थे, बल्कि युद्धों में भी भाग लिया था। यद्यपि जन-वालोंमेंसे किसी-किसीने इसे पसन्द नही किया था, उनका कहना था कि स्त्रीको काम घरके भीतर होना चाहिये। अमृताश्व जब पहले-पहल महापितर चुना गया था, उस दिन कुरु-पुर महोत्सव मना रहा था। तरुण-तरुणियोंने आजके लिये अस्थायी प्रणय वधे थे | ग्रीष्मकै दिनोंमें नदी की उपत्यका और पहाड़ पर घोड़ों और गायोंके रेवड़ स्वच्छद चरा करते । गाँव वाले भूल गये थे कि उनके शत्रु भी हैं। पशु-धनके होते ही उनके शत्रुओंकी संख्या बढी थी । जब कुरुजन वोलगाके तट पर था, उस वक्त उसके पास पशुघन नहीं था। उस वक्त उसे आहार जगलसे लेना पड़ता था; अभी शिकार मधु या फल न मिलनेसै भूखा रहना पड़ता था । अब कुरुने शिकारके कुछ पशुओ--गाय, घोड़े, भेड़, बकरी, खर-को पाल बना लिया। वह उन्हें मास, दूध, चमड़ा ही नहीं, बल्कि उनके वस्त्र भी देते हैं। कुरुआनियाँ सूत कातने और कम्बल बुननेमे कुशल हैं। किन्तु यह कुशलता समाजमे उनके पहले स्थानको अक्षुण्ण नहीं रख सकी। अब स्त्री नहीं पुरुषका राज्य है। जन-नायिका जन-समितिका नहीं बल्कि लड़ाके महापितरका शासन है, जो जनमतका ख्याल रखते