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अमृताश्व

'प्-पि-व्-व्-वे -े -े-मू-म-सो -ो-मि-'
"रहने दे कृच्छ्र ! देख तेरे संगीतसे सारे पशु-पक्षी जंगल छोड़ भाग रहे हैं।"
"हू-हु-म्-म !"
इस समय सोम पी अमृत बननेका नहीं था। आम तौरसे उसका समय सूर्यास्तके बाद होता है; किन्तु कृच्छ्राश्वको तो कोई बहाना मिलना चाहिए। उसके होश हवास छोड़ चित्त पड़ जाने पर; सोमा और ऋज्राश्वने भी प्याले रख दिये और दोनों नदीके किनारे एक चट्टान पर जा बैठे। पहाड़के बीच यहाँ धार कुछ समतल भूमिमें वह रही थी, किन्तु उसमें बड़े-छोटे पत्थरोके ढोंके भरे हुए थे, जिन पर जल टकरा कर शब्द कर रहा था। पत्थरोंके आड़ में जहाँ-तहाँ मछलियाँ अपने पखोंको हिलाती चलती-फिरती दिखलाई पड़ती थीं। तटके पास की सूखी भूमि पर विशाल साल, देवदार आदिके वृक्ष थे। पक्षियों के सुहावने गीतों के साथ फूलोंसे सुगंधित मद पवनमे स्वाँस तथा स्पर्श लेना बड़े आनन्दकी चीज़ थी। बहुत वर्षों बाद दोनों इस स्वर्गीय भू-भागमें अपने पुराने प्रेमकी आवृत्ति कर रहे थे। इस वक्त फिर उन्हें वह दिन याद आ रहे थे, जव कि सोमा षोड़शी पिंगला ( पिंगल केशी) थी, जब बसन्तोत्सव के समय ऋज्राश्व भी वाहीकोमे अपने मामाके घर गया था। सोमा उसके मामाकी लड़की थी। ऋज्राश्वभी उसके प्रेमियोँमें था। उस वक्त सोमाके चाहने वालोमें होड़ लगी थी, किन्तु जयमाला कृच्छ्राश्वको मिली। दूसरोके साथ ऋज्राश्वको भी पराजय स्वीकार करनी पड़ी। अब सोमा कृच्छ्राश्वकी पत्नी है, किन्तु उस जिन्दादिल युगमें स्त्रीने अभी अपनेको पुरुषकी जगम सम्पत्ति नहीं स्वीकार किया था, इसलिये उसे अस्थायी प्रेमी बनानेका अधिकार था। अतिथियों और मित्रों पास स्वागतके रूपमें अपनी स्त्रीको भेजना, उस वक्तका सर्वमान्य सदाचार था। आज वस्तुतः सोमा ऋज्राश्वकी रहीं।

शामको ग्रामके नर-नारी महापितर (कबीलेके मुखिया या