पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/३७२

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सुमेर-- ३७१ अधिक शोषित हमारी जाति के लिए ख़तरनाक है । हमे दिमाग्री गुलामीकै अत्र शोषककै तवर्दस्त पोषक पुरोहितोकी दुकानों-इन मंदिरोंमै ताला लगाना चाहिए और हमें फंसानेके लिये गाँधी जी उन्हें खुलवाना चाहते हैं। पुरानी पोथियों, अमीरोंके टुकड़ेसे पलनेवाले सन्तोंकी वाणियको यदि हम आगमें नहीं जलाते तो सात तालेमें बंद कर देना चाहिए; किन्तु उन्हींकी दुहाई देकर गाँधी जी हमें गुमराह करना चाहते हैं । वर्णव्यवस्था जैसी मरण-व्यवस्थाका भारतमें नाम नही रहने देना चाहिए किन्तु गाँधी जी उसकी अनासकिं योगसे लच्छेदार व्याख्या करते हैं, इन सबके बाद हरिजन उद्धार सिर्फ ढोंग नहीं तो क्या है ? इससे कुछ ऊँची जाति के हरिजन-उद्धारकोंको जीविका भले ही मिल जाय, मगर उद्धारकी आशा अंधा ही कर सकता है । **तो आप नहीं चाहते कि अछूत सवर्ण सब एक हो जायें ? कालने में एक कर दिया है, किन्तु गाँधी जीके प्रिय धर्म, भगवान, पुराणपंथिता उसे हमें समझने नहीं देती। मुझे देखिए, ओझा जी ! मेरा रंग गहुँ, नाक ज़्यादा पतली ऊँची और आपका रंग काला, नाक बिलकुल चिपटी। इसका क्या अर्थ है ? मेरेमें आर्य रक अधिक है । आपमें मेरे पूर्वजोंका रक्त अधिक है। आपके पूर्वजोने वर्ण-व्यवस्थाकी लोहेकी दीवार खड़ी कर चहुत चाहो, कि रक्त-सम्मश्रण न होने पाये, किन्तु चाह नहीं पूरी हुई, इसके सबूत हम आप मौजूद हैं। वोगा और गंगाके तटके खून आपसमे मिश्रित हो गये हैं। आज वर्ण ( रंग ) को लेकर झगड़ा नहीं है—आपको कोई ब्राह्मण जातिसे खारिज करनेके लिए तैयार नहीं है। सारी बातें ठीक हो जायें, यदि धर्म, भगवान्, पुराणपंथिता इमांग पिंड छोड़ दे; और यह तब तक नहीं हो सकता, जब तक कि शोषक और गाँधी जी जैसे उनके पोषक मौजूद हैं।" ' । . मैं आपके, तीखे शब्दोंको सुनकर नाराज़ नहीं होता।