पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/३६५

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२०-सुमेर काल--१६४२ ई० अगस्त (१९४१ ) का महीना था । अबकी वर्षा बहुत ज़ोरसे हो रही थी, और कितनी ही बार कितने ही दिनों तक सूर्य का दर्शन नहीं होता था। पटनामें गंगा बहुत बढ़ गई थी और हर वक्त बाँध तोड़कर उसके शहरके भीतर अनेका डर बना रहता था। ऐसे समय बाँधकी चौकसीकी भारी ज़रूरत होती है, और पटनाके तरुणने-जिनमे छात्रोंकी संख्या अधिक थी—बाँधकी रखवालीका जिम्मा अपने ऊपर लिया था। सुमेर पटना कालेजकै एम० ए० प्रथम वर्षका छात्र था। उसकी ड्यटी दीधाघाटके पास थी। आज आधी रातको मालूम हुश्रा, कि गगा बढ़ती जा रही हैं। सवेरे भी उसका बढ़ना रुका नहीं था, और बाँधको बारी एक बीतेसे भी कम पानीसे ऊपर थी। लोगों में भारी आतंक छाया हुआ था, और हजारों श्रदमी जहाँ-तहाँ कुदाल टोकरी लिये खड़े थे, यद्यपि इसमे सदेह था कि ईटके बाँधको वह एक अगुल भी ऊँचा कर सकते । सुमेर भी सवेरे हीसे बहुत चिंतित होकर बाँध पर टहल रहा था । दोपहरको पानी धीरे-धीरे उतरने लगा, चिन्ताके मारे दवे जाते सुमेरके दिलको कुछ सान्त्वना मिली । अपने पासवाले हिस्से में सुमेरने एक और सौम्थमूर्तिको बाँधकी रखवाली करते कितनी ही बार देखा था, और कभी-कभी उसे इच्छा भी हुई थी कि उनसे बात करे, किन्तु बाढ़ की चिन्ताने इधर इधर इतना परेशान कर रखा था कि बात छेड़ने की हिम्मत न हुई । आज जब बाढ़ उतरने लगी और आकाशमै बादल भी फटने लगे, तो सुमेरको अपने पड़ोसी प्रहरीको सामने देख बात करने की इच्छा हो आई । दोनों में एकका रंग गहुँ दूसरेका काला था, और क़द भी एक