पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/३६१

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बोलासे गंगा “बहुत अच्छा ! और तो कोई बात याद नहीं पड़ रही है। मेरे कपड़े--विलायती कपड़े हैं। गाँधीके असहयोगमें दाखिल हो रहा हूँ, इसलिये कह रही हो । मैं इन्हें जलानेके पक्षमें नहीं हैं, खासकर जब कि विलायती कपड़ोंक होली काफ़ी जलाई जा चुकी है। लेकिन मेरा खहरेका कुर्ता और पायजामा सिलकर परसों ही आ रहा है । "बड़े खुदगी हो सम्फू } "खद्दरको भारी-भरकम साड़ी पहनोगी, सकीना !!! * मै तुम्हारे साथ दुनिया के अन्त तक चलेगी ।” और इन कपड़ोंको १५ यही समझ नहीं आता ।” यदि नीलाममें बिक जाते तो उसी हमसे गरीबोंके लिये कपड़े खरीदकर बाँट देती, खैर बाँट-बूटकी कोशिश करेंगी। सफ़दर जैसे उदीयमान बैरिस्टरके इस महा त्यागका चारों और बखान होने लगा, यद्यपि खुद सफ़दर इसके लिये अपनेसे ज्यादा शङ्करको मुस्तहक समझते थे। अक्टूबर और नवम्बर भर सफदरको घूमकर लोगों में प्रचार करनेका मौका मिला था। कितनी ही बार उनके साथ सकीना और कितनी ही बार शङ्कर भी रहते थे। उनका भन गाँवोंमें ज्यादा लगता था, क्योंकि उनका विश्वास जितना गाँवके किसानों और श्रमिकों पर था, उतना शहरके पढ़े-लिखों पर नही । लेकिन इफ्तेके भीतर ही उन्हें पता लगा कि उनकी फसीह उर्दू का चौथाई भी लोगों के पल्ले नहीं पड़ रहा है। शङ्करने शुरू हीसे इन गाइनमें व्याख्यान देना शुरू किया था, जिसके असरको देख सफदरने भी अवधीमे बोलनेका निश्चय किया। पहले उनकी भाषामे किताबी शब्द ज्यादा आते थे, किन्तु अपने परिश्रम और शङ्करकी सहायतासे दो