पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/३६

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३-अमृताश्व देश-मध्य एशिया; पामीर (उत्तर कुरी }; जाति-हिन्दी-ईरानो; काल -२००० ई० पू० फर्गानाके हरे-हरे पहाड़ जगह-जगह बहती सरितार्य तथा चश्मे, कितने सुन्दर हैं, इसे वही जान सकते हैं, जिन्होंने काश्मीर की सुषमा देखी है। हेमन्त बीतकर वसन्त आ गया है । और बसन्त-श्री उस पार्वत्य उपत्यकाको भू-स्वर्ग बना रही है । पशु-पाल अपने हेमन्तनिवासों, गिरि गुहा था पापाण-गृहोंने निकलकर विस्तृत गोचरभूमिमें चले आये हैं । उनके घोड़ेकै बालके तम्बुलैं—जिनमें अधिकतर लाल रंगके हैं-धुआँ निकल रहा है। अभी एक तम्बुसै एक तरुणी मशकको कन्धेने लटकाये नीचे पत्थरोंपर अट्टहास करती सरिताके तट पर चली । अभी वह तम्बुओं से बहुत दूर नही गई, किं एक पुरुष सामने आकर खड़ा हुआ। तरुणींकी भाँति उसके शरीर पर भी एक पतले सफेद ऊनी कंवल दो छोर दाहिने कंधे पर इस तरह बँधे हुये हैं कि दाहिना हाथ मोढ़ा और वक्षार्थ तथा चुटनोके नीचे का भाग छोड़, सारा शरीर ढंका हुआ है। पुरुषकै पिगल के, मनु सुन्दर रूपसे सँवारे हुये हैं । सुन्दरी पुरुपको देख ठहर गई। उसने नुस्कराते हुये कहा-सोमा ! आज देर से पानीके लिए जा रही है । * हाँ, ऋज्राश्व ! किन्तु दू किधर भूल पड़ा ?' भूला नहीं सखी ! मैं तेरे ही पास चला आया ।" मेरे पास ! बहुत दिनों बाद । आज सोमा याद आ गई !!