पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/३५७

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वोलासे गंगा किन्तु जनताको मैं मानता हूँ। सन् १८५७ ई० में पदच्युत सामन्तोंने चर्बी, कारतूस और धर्म खतरेमे' की झूठी दुहाई देकर जनताके जबर्दस्त हिस्सैको खींचा था, किन्तु अब जनता रोटीके सवाल पर खींची जा रही है। मैं समझता हूँ, दुहाई ठीक है, क्रान्तिका रव ठीक है, और गाँधीं पीछे यदि अपने वास्तविक रूपम भी आयेंगे तो भी मैं समझता हैं, क्रान्तिके चक्रको वह उलट नहीं सकेंगे। “इसीलिये मै निश्चय कर रहा हूँ क्रान्तिको सेनामे दाखिल होने का--असहयोगी बनने का ।” इतनी जल्दी » । जल्दी करनी होती, तो मैं बहुत पहले मैदानमें उतरा होता । बहुत सोचने-समझनेके बाद और आज तुम्हारी राय लेकर मै इस निश्चयको प्रकट कर रहा हूँ ।। सफदरके गम्भीर चेहरेसे जिस वक्त ये शब्द निकल रहे थे, उस वक्त शङ्करकी दृष्टि कुछ दूर गई हुई थी । उन्हें चुप देख सफदरने फिर कहा- अज़ीजमन ! तुम सोच रहे होगे, अपनी भाभीके अधर-रागको, उसकी रेशमी साड़ीको, मखमली गुगबीको अथवा इस बंगले और खानसभाको । मैं सकीना पर जोर न दूंगा, वह चाहे जैसी जिन्दगी पसंद करे, उसके पास अपनी भी जायदाद है और यह बंगला, अपने कितने गाँव तथा कुछ नकद भी है। मेरे लिये वह कोई आकर्षण नहीं रखते । उसकी इच्छा चाहे जिस तरहकी जिन्दगी पसंद करे । “मैं भाभी और तुम्हारी ही बात नहीं होच रहा था; सोच रहा था अपने बारेमे । मेरे रास्तेमें जो मानसिक रुकावट थी वह भी दूर हो गई । आओ, हम दोनों भाई साथ ही क्रान्तिके पथ पर उतरें ।” | डबडबाई अखिोंसे सफदरने कहा--'ऑक्सफर्ड में शङ्कर ! तुम्हारे लिये मैं तरसता था | अब हम फाँसीके तख्ते पर भी हँसते-हँसते चढ़ ज्ञायेंगे । । सकीनाने आकर खानेका पैगाम दिया, मजलिस बर्खास्त हुई ।