पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/३५

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३२ वोल्गासे गंगा कितनी प्रिय है ! अब फिर यह देखनेको नहीं मिलेंगी, इसीलिए मैं घंटों यहाँ बैठी इसकी सुप्त धाराको देखा करती हूँ ।' 'तो तू वोल्गा को फिर न देख सकेगी । न तैर सकेंगी । इस गभीर उद् ( जल ) में तैरनेमें कितना आनन्द आता था !-सुन्दरीके कपोज्ञों पर अश्रुबिंदु ढलक रहे थे।

  • कितना क्रूर, कितना निष्ठुर }-उदास हो ऋक्षने कहा। 'किन्तु यह जन-धर्म है रोचना-नु ।' 'और बर्बर-धर्म है।

[आजसे सवा दो सौ पीढ़ी पहले एक आर्य-जनकी यह कहानी है । उस वक्त भारत, ईरान, और रूसकी श्वेत जातियोंकी -एक जाति थी, जिसे-हिन्दी-स्ताव या शत-वंश कहते हैं।]