पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/३४५

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॥ 4 ॥ ३४॥ वोल्गासे गंगा मास्टर जीके पहुंचते ही सफ़दरने उठकर हाथ मिलाया और उन्हें कुरसी पर बैठते देख कहा-“शंकर, आज तुम मुझसे बिना मिले ही लौटे जा रहे थे । भाई साहब ! क्षमा करे, मैंने सोचा कि आप अकेले किसी काममें मशगूल हैं ।। “मुकदमेकी फ़ाइलोंमें लगे रहते हुए भी मेरे पास तुम्हारे लिए दो मिनट रहते ही हैं । और आज तो मेरे सामने फाइलें भी नहीं हैं।" शुकरसिंह पर सफदरका सबसे ज़्यादा स्नेह था। वह उनसे बढ़कर अपना दोस्त किसीको नहीं समझते थे । सैदपुरके स्कूलमे चौथी श्रेणीसे भरती होनेसे लखनऊमें बी० ए० पास होने तक दोनों एक साथ पढ़े। दोनों मेधावी छात्र थे। परीक्षामें कभी कोई दो चार नम्बर ज़्यादा पा जाता, कभी कोई कम । किन्तु योग्यताकी इस समकक्षताके कारण उनमें कभी झगड़ा या मनमुटाव नहीं हुआ। दोनोंकी दोस्ती एक ख्यालने और मदद की थी। दोनों ही गौतम राजपूत थे। यद्यपि आज एकको घर हिन्दू था, दूसरेका मुसलमान; किन्तु दस पीढ़ीके पहले दोनों ही हिन्दू ही नहीं, बल्कि दोनोंके वंश एक पूर्वजमें जाकर मिल जाते थे। खास-खास मौकों पर बिरादरीकी सभाओंमें अब भी उनके घर वाले मिला करते थे। सफदर अपने बापके अकेले पुत्र थे। किसी भाईके अभावको वह अनुभव करते थे, जिसे दूर करनेमे शंकरने मददकी थी। शङ्कर सफ़दरसे छ महीने छोटे थे। ये तो बाहिरी बाते थीं; किन्तु उनके अतिरिक्त शकरमे कई ऐसे गुण थे, जिनके कारण पक्के साहब सफदर सीधे-सादे शकर पर इतना स्नेह और सम्मान-भाव रखते थे। शकर नम्र थे, किन्तु खुशामद करना वह जानते ही नही थे । इसीका फल है कि प्रथम श्रेणीमे एम० ए० पास करने पर भी अब वह एक सरकारी स्कूल के सहायक शिक्षक ही बने हुए हैं। उन्होंने यदि ज़रा-सा संकेत भी किया होता, तो दूसरे उनकी सिफारिशकर देते और आज वह किसी हाई