पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/३४४

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| सफ़दर पैटी-कोट' पहिने; किन्तु वह इसके लिये राज़ी न हुई, और विलायतमे उनके मिलने वाले अँगरेज़ नर-नारियोंने सकीनाके सौन्दर्य के साथ उसकी साड़ीकी जैसी तारीफकी, उससे सफदरको सकीनाके इनकार पर अफसस नहीं हुआ। वैसे दोनों दम्पत्तिका रंग इतना साफ था कि उन्हें योरुपमें सभी इटालियन कहते । सन् १६.२१ कै जाड़ोंको मौसम था। उत्तरी भारतके और शहरोंकी भाँति लखनऊके लिए भी जोड़ा सवसे सुन्दर गैसम है। सफ़दर साहब कचहरीसे आते ही आज बँगलेके पीछेके चबूतरे पर वैतकी कुरसी पर बैठे थे । आज उनका चेहरा ज्यादा गम्भीर था। उनके सामने एक छोटी सी मेज़ थी, जिसपर नोटबुक और दो-तीन किताबें थीं। पासमे तीन और खाली कुरसियों पड़ी थीं। उनके शरीर पर कलफ़ किया प्रथम श्रेणीका अँगरेजी सूट था। उनके मुँङ-दाढ़ी-शत्य चेहरेकी अवस्थाको देखने हीसे पता लग सकता था, आज साइब किसी भारी चिन्तामे हैं। ऐसे चक्क साहब नौकर-चाकर मालिकके पास बहुत कम जाया करते थे। यद्यपि सफ़दरको गुस्सा शायद ही कभी आता हो, किन्तु नौकरोंको उन्होंने समझा रखा था कि ऐसे समय वह अकेला रहना ज़्यादा पसंद करते हैं। शाम होनैको आई, किन्तु सफदर उसी आसनसे बैठे हुए हैं। नौकरने तार जोड़ कर टेबिल-लैम्प लाकर रख दिया । सफ़दरने बंगले की औरसे आती किसीकी आवाज्ञको सुन लिया था। उनके पूछने पर नौकरने बतलाया, मास्टर शंकरसिंह लौटे जा रहे हैं। सफदरने तुरन्त नौकरको दौड़ा कर मास्टर जीको बुलवाया। मास्टर शंकरसिंहकी उम्र तीस-बत्तीस ही सालकी होगी, किन्तु अभी से उनके चेहरे पर बुढ़ापा झलकता है । बन्द गलेको काला कोट, वैसा ही पायजामा, सिर पर गोल फैल्ट टोपी, ओठों पर घनी काली मूंछ नीचेके और लटकी हुई वह तरुणाईकै बसन्तका कहीं पता न था, यद्यपि उनकी आंखोंको देखने पर उनसे फूट निकलती किरणें बतलाती थीं कि उनके भीतर प्रतिभा है।