पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/३३९

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३८ वोल्गासे गंगा यह खुद देख रहे हैं। दियासलाई, फोटोग्राफी और बिजली के प्रकाशके युगमें हम घुस रहे हैं, किन्तु यह लोग पुराने युगके सपने देख रहे हैं। तो भी इस घोर अन्धकारमें एक बात उसे स्पष्ट मालूम होती थी । इस लड़ाईंको सिर्फ जनताके बल पर ही जीता जायेगा, जिसके कारण जनता अपने बलको समझेगी। विलायती पूँजीपतियोंने जिस तरह विलायतके मजदूरोंकी शकिसे मदद ले अपने प्रतिद्वन्द्रियोंको हटा उन्हें अँगूठा दिखा दिया, उसी तरह ये भारतीय सामन्त भी चाहे भारतीय जनता -सिपाहियों, किसानों के साथ काम निकल जाने पर भले ही गद्दारी करें; किन्तु वह जनतासे उनके आत्मविश्वासको नहीं छीन सकते, और न बाहरी शत्रुओंसे बचनेके लिये साइसके नये-नये आविष्कारोंको अपनानेसे इन्कार कर सकते है रेलकी पटरियाँ, तारके खम्भे, कलकत्ता में बनते भापके स्टीमर अब भारतसे विदा नही हो सकते । मंगलसिंहका विश्वास इन दकियानूसी सामन्तों पर नहीं, बल्कि दृथिवी पर मानवकी परिवर्तनकारिणी शकि, जनता पर था। १० मई ( १८५७ ई०) को मंगलसिंह मैरठके पास थे, जब सिपाहियोंने वहाँ विद्रोहको झड़ा उठाया । बहादुरशाहके प्रतिनिधि तौर पर उन्हें सिपाहियोंकी एक टुकड़ीकों अपने प्रभावमें लानेका मौका मिला । सामन्त नेता मंगलसिंहकी योग्यताके कायल थे, किन्तु साथ ही यह भी समझते थे कि उसका उद्देश्य उनसे बिलकुल दूसरा है, इसीलिये मंगलसिंहको दिल्लीकी और न भेजकर उन्होंने पूरबकी ओर रवाना किया । कौन कह सकता है, मेरठसे पूरब और पश्चिमकी और फूटनेवाले इन रास्तोंने भारतके उस स्वातन्त्र्य युद्धके भाग्यमें पूरव-पश्चिमका अन्तर नहीं डाल दिया। दिल्लीकी और जानेवाली सेनाको मगलसिंह जैसा नेता चाहिये था, जो कि दिल्लीकी प्रतिष्ठाको पूरी तौरस विजयके लिये इस्तेमाल कर सकता । । । । मगल सिंहकी टुकड़ीमें एक हजार सिपाही थे, जो विद्रोहकै दिनसे