पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/३३५

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३३४ वोलासे गंगा पूँजीपति शासकों तथा हिन्दुस्तानी सामन्तौकी दुहरी गुलामीमें पिस रहा है, जिनमें सबसे मजबूत और सबसे चतुर है, अंग्रेजोंका शासन । उसके हटा देने पर सिर्फ स्वदेशी सामन्तोंसे भुगतना पड़ेगा जो कि भारतीय जनताके लिये अधिक आसान होगा। | जनवरीका महीना था। रातको काफी सर्दी पड़ती थी, यद्यपि वह लंदनके मुकाबिलेमें कुछ न थी । विठूर में चारों ओर सुनसान था, किन्तु पेशवाके महलके दरवान अपनी-अपनी जगहों पर मुस्तैद थे। उन्होंने अपने स्वामी के एक विश्वसनीय आदमीके साथ किसी अजनबीको महलके भीतर घुसते देखा, किन्तु, वह आजकल ऐसे अजनबियोंको हर रात महलके भीतर घुसते देखा करते थे। मगलसिहकी नानासे यह पहिली मुलाकात न थी, इसलिये वह एक दुसरेको भली प्रकार जानते थे। मगलसिंहने वहाँ अपने अतिरिक्त दिल्लीके पेंशनखोर बादशाह, अवधके नवाब, जगदीशपुरके कुँअरसिंह तथा दूसरे भी कितने ही सामन्तोंके दूतोंको उपस्थित पाया। लोगो बतलाया, कि बजबज ( कलकत्ता) दानापुर, कानपुर, लखनऊ, आगरा, मेरठ, आदि छावनियोंके सिपाहियोंमें विद्रोहकी भावना कहाँ तक फैल चुकी है। यह आश्चर्य की बात थी, कि इतनी बड़ी शक्तिके मुकाबिले के लिये अपनी कुछ भी फौज ने रखते हुए वह सामन्त सिर्फ बागी पल्टनों पर सारी आशा लगाये हुए थे। और जहाँतक सैनिक विद्याका संबंध था, प्रायः सारे ही नेता उससे कोरे थे; तो भी वह जेनरलका पद स्वयं लेनेके लिये तैयार थे । नानाने बहुत आशाजनक स्वरमें कहा "भारतमें अंग्रेजोंका राज्य निर्भर है हिंदुस्तानी पलटनपर, और आज वह हमारे पास आ रही हैं।” लेकिन सभी हिन्दुस्तानी पल्टने हमारे पास नहीं रही हैं नाना साहेब ! पंजाबी सिक्खोंके बिगड़नेकी अभी तक कोई खबर नहीं है, बल्कि हिन्दुस्तानकी बाकी पल्टनोंने अंग्रेजोंकी ओरसे लड़कर जिस तरह