पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/३३

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वोलासे गंगा “हाँ, मेरा है, किन्तु मैंने तुझे कभी नहीं देखा। मैं कुरुजनकी हूँ। यह कुरु-जनकी भूमि है। 'कुरु जन की ? कह ऋक्ष सोच में पड़ गया। कुरु यह उसका पड़ोसी-जन है । कितने ही वर्षों से दोनों जनमे अनबन चल रही है। कभी-कभी युद्ध भी हो जाता है। किन्तु कुरु उषा-जनसे अधिक चतुर हैं, इसलिए युद्ध में सफलताकी आशा न देख वह अकसर अपने पैरों से भी काम लेते हैं, इस तरह जहाँ हाथ सफलता नहीं प्रदान करते, वहाँ पैर उन्हें जीवित रहने में सफल बनाते हैं। निशा-पुत्र बरोबर कुरुसंहारका निश्चय करते, किन्तु अभी तक वह अपने निश्चयको कार्य रूपमें परिणत नहीं कर सके। ऋक्षको चुप देख तरुणीने कहा-'इस खरगोशको तेरे कुत्तेने मारा है, इसे तू ले जा लेकिन, यह कुरुकै मूगया-क्षेत्रमें मरा है।' “हाँ, मरा है, किन्तु मै कुत्तेके मालिकको प्रतीक्षामें थी। *प्रतीक्षामें है। हाँ, कि उसके आने पर इस खरगोशको दे दें। कुरुको नाम सुनकर ऋक्षके मनमें कुछ वैष-सा उठ आया था, किन्तु सुन्दरीके स्नेहपूर्ण शब्दों को सुनकर वह दूर होने लगा। उसने प्रत्युपकारके भावसे प्रेरित होकर कहा “शिकार ही नहीं, तूने मेरे कुतेको भी मुझे दिया। यह कुत्ता मुझे बहुत प्रिय है ।। 'सुन्दर कुत्ता है। सारे जनके बीच क्यों न हो, भेरी आवाज सुनते ही मेरे पास चली आता है। 'इसका नाम है। *शंभू ।' और तेरा मित्र !