पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/३२

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दिवा जाड़का दिन था। वोल्गाकी धारा जम गई थी और महीनों के बरसते हिमके कारण वह दूरसे रजत बालुका या धुने कपासको राशिसी मालूम होती थी। दूसरी ओर जंगलोंसे शिशिरकी निर्जीवता और स्तब्धता छाई थी। निशा-जनकी संख्या अब और भी ज्यादा थी, इसलिए उसके आहारकी मात्रा भी अधिक होनी जरूरी थी, किन्तु साथ ही उसके पास काम करनेवाले हाथ भी अधिक थे और कामके दिनों में वह अधिक मात्रामें आहार-संचय करते । जाड़ोंमे भी सधै कुत्तोंको लिए निशा-पुत्र और पुत्रिय शिकारमें कुछ-न-कुछ प्राप्त कर लेतीं। इधर उन्होंने शिकारका एक और नया ढंग निकाला था---चारे अभावसे हरिन, गाय, घोड़े आदि शिकारके जानवर एक जंगलसे दूसरे जगलको चले जाते थे । निशा-जनने जमीनमें गिरे दानों जमते देखा था, इसलिए उन्होंने धासके दानोंको आई भूमिमें छीटना शुरू किया। इन उगाई घासोंके कारण जानवर कुछ दिन और अटकने लगे। उस दिन ऋक्षवाके कुत्तेने खरगोशका पीछा किया । ऋक्षश्रवा भी उसके पीछे दौड़ा । पसीना छूटने पर उसने अपने बड़े चर्म-कंचुकको उतार कन्धे पर रख फिर दौड़ना शुरू किया; किन्तु, कुत्ता अभी भी नहीं दिखाई पता था, बरफमें उसके पैरों के निशान जरूर दिखलाई पड़ रहे थे। ऋक्ष हॉफने लगा, और विश्राम करने के लिए एक गिरे हुए वृक्षके स्कन्ध पर बैठ गया। अभी वह पूरी तरह विश्राम नहीं कर पाया था कि उसे दूर अपने कुत्ते की आवाज सुनाई दी। वह उठकर फिर दौड़ने लगा। आवाज नजदीक आती गई। पास जाकर देखा, देवदारुके सहारे एक सुन्दरी खड़ी है। उसके शरीर पर श्वेत चर्मकंचुक हैं। सफेद टोपीके नीचेलै जहाँ-तहाँ उसके सुनहले कैश निकलकर दिखाई दे रहे हैं। उसके पैरोके पास एक मरा हुआ खरगोश पड़ा है। ऋक्षको देखकर कुत्ता नजदीक जी और, जोर-जोर से भूकने लगा । ऋक्षकी दृष्टि सुन्दरीके चेहरे पर पड़ी, उसने मुस्कराकर कहा-'मित्र ! यह तेरा कुचा है ?