पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/३१८

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रेखा भगत ३१७ उन्हें एक दूसरेसे बिछुड़नेका अफसोस हो रहा था। कोलमैनने आखिर में कहा था "मित्र ! हम उन्नीसवीं सदमें दाखिल हो गये हैं। दुनियामें उथल पुथल हो रही है । हमे उस उथल-पुथल में भाग लेना चाहिये, और इसके लिये पहिला काम है, छापाखाना और समाचारपत्र कायम कर जनताको विस्तृत दुनियाके हलचलका शान करानी ।। अबकी साल वर्षा नहीं हुई। जेठके सूखे ताल वैसे ही सूखे रह गये । भदई धान, रबी एक छटाँक भी नहीं हुई। घरके घर मर गये, या उजड़ कर भाग गये | धुरदेहका लंबा झील जव सूखा तो पचीसों कौसके लोग उसके सूखे पेट में पड़े दिखाई पड़ते थे । वह लोग कमलकी जड़-भसड-खोदनेके लिये आये थे, और कितनी ही चार उसके लिये आपसमै झगड़ा हो जाता था। दूसरे साल जब वर्षा हुई, और मंडुआ (रागी) की पहिली फसल रेखा हँसुआ लगा रहा था, तो मंगरीको पास देखकर उसको अचरज होता था। इस साल भरके भीतर धरती उलटपुलट गईं मालूम होती थी । घर घर में अधिकांश लोग मर गये थे, घर घरके लोग तितरबितर हो गये थे। रेखाको अचरज इसलिये हो रहा था, कि कैसे वे दोनों प्राणियोंने प्राण शरीरको इकट्ठा रखते, अपने भी इकट्ठा रहें । रेखा इसके लिये धुरदेहका बहुत कृतज्ञ था। और भी कभी वर्षाकै अभाबके कारण अकाल पड़ा होगा । किन्तु इतना कष्ट शायद कभी रेखाके पहिलेके किसानको भुगतना न पड़ा होगा । उस वक्त एक सरकार थी, जिसको भी लगान कम देना पड़ता था, अब कम्पनी सरकार के नीचे जमींदारोंकी जबर्दस्त सरकार थी, जिसके गोराइत-म्यादोंके मारे छान पर लौका भी नहीं बचने पाता था। हर फसलकी कमाई डेढ़ महीने भी खानेके लिये नहीं बचती थी, फिर अकाल के लिये किसान क्या बचा रखते ?