पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/३१०

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३०६. रेखा भगत मौला--"खेतीवारी तो इस तरह तबाह हुई, और जुलाहोंके मुंहमें भी जाब लगने लगा है, सोबरन राउत ! अब कम्पनी बहादुर अपना कपड़ा विल्लाइतसे लाकर बेच रहा है।" | मुंशी–“हाँ, कल परका कता-बुना । देखो यह मेरी मिर्जई उसीकी है, सोबरन राउत । इतना सस्ता चखें-कर्वेका कपड़ा नहीं मिलता, इसीलिये इतके लिये लेना पड़ता है। इनत का ख्याल है, रेखा भगत ! मुस्कुराते क्यों हो सर-दबरम जाकर जाझिम पर बैठना हो, तब न मालूम हो । रेखा--"तुम्हारी इज्जतके लिये नहीं हँस रहा था, मसी जी । हँस रहा था, कम्पनी बहादुर राज भी करता है, और व्यापार भी । ऐसा भी राज ।। भोला पहित सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुगळे भी पाँच हजार वर्ष बीत गये । इतने कालम ऐसा राज तो नहीं सुना था। मुशी–नाजिमके दर्बारके एक मुंशीने कम्पनीको फिरंगी डकैत बतलाया था, भोला पडित ! और दूसरेने कहा था कि अपनी फिरंगी . सौदागरोंकी जमात है, अपने देशसे वह सिर्फ व्यापारके लिये आई है। पहिले यहाँका माल वहाँ वेचती थी, अब उसने बिस्लाइतमें बड़े-बड़े कारखाने खोल दिये हैं, जिसमें खुद माल तैयार कराता है, और खुद ही बैंचता है।" मौला--' तो मालूम हुआ, अब कारीगरोंकी भी खैरियत नहीं । जाड़ोंकी गगा पूरी होती है, और उसकी स्वभाविक गंभीर गति और गभीर हो जाती है। इस वक्त नावोंके मारे जानेका बहुत कम डर रहता है । इस लिये व्यापारी इसे व्यापारके लिये सुन्दर मौसिम मानते हैं। इस समय गंगाके किनारे चार घंटे बैठ जानेसे सैकड़ों वङ्की बड़ी नार्वे वहाँसे पार होती देखी जायेगी, इनसे अधिकाश पर कम्पनीको माल है, जिनमेसे कितना ही विलायतसे आकर ऊपर की ओर जा रहा