पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/३०९

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वोगासे गंगा मुंशी-“कम्पनीको क्या फिकर है सोबरन राउत | उसने मालगुजारी बाध दी है, किस्तके दिन छपरा जा जमींदार तोड़ा हाल आते हैं । कम्पनीका दाम दाम चुकता हो जाता है, दयालपुरके किसान मरें चाहें जिये, जमींदार मार मारकर धुरें उड़ा देगा, यदि उसकी मालगुजारी न बेबाक करो-पाँच रुपया तुमसे लेता है एक रुपया कम्पनीको देता है, और चार रुपये अपने पेट में डालता है, सोबरन राउत ? | रेखा-“हे भगवान् ! तुम सो गये या उफर पड़े । तुम काहे नहीं नियाद करते हैं हम तो हार गये ।। | सोबरन राउत-“हाँ, हार गये देखा ! सुना न है, बरई पर्गना बालोंने एका करके जमीदारको मालिक माननेसे इन्कार कर दिया था। उन्होंने छपरा जी कम्पनीके साहेबसे कहा कि हमारी पचायत मालगुजारी चुकायेगी, हम जमींदारको नहीं मानेंगे। तो साहेबने जानते हो क्या जवाब दिया--'सूखा-बाइकी मालगुजारी भी दोगे ? सूखा बाढ़में अपने ही वालबच्चोंका प्राण जिलाना मुश्किल है, उस फिरगीको यह कहते दैव-राजाका भी डर नहीं मालूम हुआ है और वह भी उसने ऊपरी मनसे कहा था । रेखा ! उसने पीछे कह----तुम लोग कगले हो, जब तुम मालगुजारी नहीं दोगे, तो कम्पनी बहादुर तुम्हारा क्या लेगी ? हम पैसेवाले इज्जतदार आदमीको जमींदार बनाते हैं, जिसे इमारी मालगुजारी बकाया रखनेमें उसे घरबार नीलाम होने, इज्जत जानेका इर हो ।' रेखा–“तभी वो चरक ( कोढ़ ) फूटा रहता है, सारे देहमें इन फिरगियोके, वड़े निर्दयी होते हैं । सोबरन-“बरई वालोंको कोई चारा नहीं रहा, तो वह जान पर खेले । कम्पनी बहादुर होता, तो बहादुरकी तरह लड़ता, लड़नेवाले से। लड़ता । बरईवालो के पास पत्थरकला( बंदूक) था, कम्पनीवालोंके पास तोप थी। और कहाँ कहाँ से गोरी-काली फ्ल्टन उतर आई थी। गाँवके गाँवको जला दिया, स्त्री बच्चों को भी नहीं छोड़ा। वरईवाले क्या करते है