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रेखा भगत


मुशी-पंचायत में आग लगाकर कम्पनीने यह काम जमींदारको सौंप दिया ।" रेखा--और जमीदार क्या करता है, हम उसे देख रहे हैं ।" । मुशी–मैं भी जमींदारका नमक खाता हूँ, रेखा भगत ! जानते हो मसरखके जमींदारका पटवारी हूँ। लेकिन यह अन्यायका धन है, अन्यायका जो खाता है, गल जाता है। मुझको देखो, सात वेटे थे, साँड़से होकर सब उफर पड़े", मुशीजीकी आँखों में आँसू देखकर सबका दिल पसीज गया उफर पड़े रेखा भगत । अब घर में एक बाधी भी नहीं है पानी देने के लिये, और मालिककी, जानते ही हो, छपराकी रडीके पीछे क्या क्या गति हुई १ इन्द्रिय कटकर गिर गई है, रेखा भगत । गिर गई है, यह जो दोनों बबुआको देख रहे हों, यह खवासके हैं।" रेखा “मालिकॉमें अब यह बहुत चलने लगा है, मंसीजी !” सोबरन—“खेत गया, गाँव गया, सात समुद्र पारके डाकुओंने हमारे ऊपर घरके डकैनौंको ला बैठाया। पंचायत गईं, और जो चार अच्छत उपजाते, वह मी आगम गया, और जो कभी ठीकसे बरसा- बुदी हुई चारदाना घर आया तो मालिक जमींदार, गौराहत--चौकी- दार, पटवारी-गुमाश्ता कितनेकी चौंथसे बचें ।" मुशी–पटवारीकी लूटको मैं मानता हूँ, सोबरन राउत ! किन्तु, यह भी जानते हो न, पटवारीको जर्मंदार आठ थाना महीना देता है। आठ आना महीनेमें बताओ, हमारे कायथकी जीभ भी नहीं भीग सकती हैं ? क्या जमींदार यह बात जानते नहीं हैं ? रेखा-जानते हैं मसी जी । सब देखते हैं, जमींदार अधे नहीं हैं। राजा कम्पनी वहादुर डकैत है ही, उसने जमदारको हमारे ऊपर नया बैठाया सो डकैत, और जमींदारने और छोटे-छोटे एक टोकरी डकैत हमारे शिर पर बैठा दिये । इसपर भी हम कैसे जीते हैं । सोवरन-जीते हैं क्या देखा । अब पैट भर अन्न, तन पर कृपा रखनेवाला दयालपुर में कोई दिखाई पड़ता है ?