पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/३०६

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रेखा भगत मिर्जई, और सिर पर टोपी थी, कानों पर सरकडेकी कलम अब भी इंगी थी, जान पड़ता था, यहाँ भी उन्हें सियाहा लिखना है । मसरखके जमींदारके पटवारी होनेसे वह सोच रहे थे, कि इस बातचीतमें भाग लें यो न लें; किन्तु, जब गाँवकी राजनीति छिड़ गई हो, उस वक कानमुँह रखने वाले आदमीके लिये चुप रहना मुश्किल हो जाता है। दूसरे दयालपुर, उनके मालिकका गाँव भी न था, इसलिये भी दयालपुरके किसानोंकी बातचीत में हिस्सा लेनेमें उन्हें कोई हर्ज नहीं मालूम हुआ। मुंशीजीने कलमको अँगुलीमें दबाकर घुमाते हुए कहा| "पंडित ! कसी पूछने वालेकी बात करते हो ? कौन पूछेगा । यहाँ तो सब अपनी अपनी लूट है-'पर सम्पतिकी लूट है, लूट सकै सो लूट। कोई राजा नहीं है । नाजिम साहेबके दवरमें मेरी मौसेरी बहिन-दामाद रहता है। उसको बहुत मेदभाव मालूम है । कोई राजा नहीं । सौ-दो-सौ फिरगी डाकुओंने जमात बाँध ली है, इसी जमातको कम्पनी कहते हैं । रेखा-मंसी जी ठीक कहते हो, 'कम्पनी वहादुर’ 'कम्पनी बहादुर सुनते सुनते हम समझते थे, कम्पनी कोई राजा होगा, लेकिन असिल बात आज मालूम हुई ।। मौला-तभी तो, जिधर देखो उधर लूट मची है, कोई न्यायअन्यायकी खबर लेनेवाला है ? रामपुरके मंसीजीकी सात पीढीका भी दयालपुरसे कोई वास्ता न था १३ । | सोबरन--"मुझे तो समझ हीमें नहीं आता मौलू भाई । यह रामपुरका मुंसी कैसे हमारे गाँवका मालिक बन गया। दिल्लीके वादशाहसे कम्पनीने लोहा लिया । मुंशी–दिल्ली नहीं सोबरन राउत ! मकसूदाबाद (मुर्शिदाबाद) नवाबसे लोहा लिया। दिल्ली तखतसे मकसूदाबादने हमारे मुलुकको छीन लिया था, सोबरन राउत | सोबरन--"हम लोगों को इतना याद नहीं रहता मसीजी हम तो