पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/३०५

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३०४ बोलपासे गंगा मौला--"सात पुश्तसे जंगल काटकर हमने खेत आबाद किया था । सोबरन-मौलु भाई !, बधियाका खेत है न वहाँ भारी जगल था। हमारे मूरिस घिनावन बाबाको वहीं बाध उठा ले गया, तभीसे उस जगहका नाम बधिया पड़ा । जान ६' देकर हमने खेत आबाद किया था ।। | इसी बीच पतली चीटकी अपनी सफेद पगड़ीको नगे काले बदन पर सँभालते हुए भोला पंडितकी आर देखकर रेखाने कहा भोला पंडित ! तुम तो सतयुग तककी बात जानते हो, ऐसा तो गाढ़ प्रजा पर कभी नहीं पड़ा होगा । मौला-“खेत इमने बनाया, जोतते-बोते हम हैं पंडित ! और अब हमारे गाँवके मालिक हैं रामपुरके सुशीजी ।। ।' भोला पडित-अधर्म है अधर्म रेखा भगत ! कम्पनीने तो रावण और कंसके जुलुमको मात कर दिया । पुराने धर्मशास्त्र में लिखा है, राजा किसानसे दशाश कर ले ।” | मौला--और पडित ! मुझे तो अचरज है, यह रामपुरकै मुंशीको हमारा मालिक जमींदार क्यों बना दिया है । भोला पंडित--सब उलटा है मौलू ! पहिले परजाके ऊपर एक राजा था। किसान बस एक राजाको जानता था। वह दूर अपनी राजधानीमै रहता था, उसे सिर्फ दशाशसे मतलब था, सो भी जब फसल हुई तब । किन्तु, अब फसल हो चाहे न हो, जमींदारको अपना हाड़चाम बेचकर, बेटी-बहिन बैंचकर मालगुजारी चुकानी होगी ।” | रेखा--"और मालगुजारीका भी पता नही पडित ! सालै साल बढ़ाती जाती है। कोई नहीं पूछनेवाला है, कि क्यों ऐसा अवैरखाता है। | मुशी सदासुखलाल पटवारी आए थे हरिहर क्षेत्र स्नान करने, और संस्ता होने पर एक गाय खरीदने, किन्तु, अबके सालकी मॅहगाईको देखकर उनकी टाँग थहरा 'गई ।' उनके बदन पर एक मैली कुचैली -