पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/३०४

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१७-रेखा भगत का–१८०० ६० कार्तिक पूर्णिमा है। गंडक ( नारायणी )स्नान और हरिहर नायके दर्शनकी भीड़ है। दूर दूरसे ग्रामीण नर-नारी बड़े यसै बचाये. पैसे और सत्त-चावल लेकर हरिहर क्षेत्र पहुंचे हैं। बगीचे में उस वक्तके कुछ बैल-घोड़ों, हाथियोंको बँधा देखकर किसे उम्मीद हो सकती थी, कि यही आगे बढ़कर संसारको सबसे बड़ा मैला बन जायेगा। गाढेके अंगोछमें नमकीन सत्तको हरी मिर्ची और मूलीके साथ बड़े स्वादकै साथ खाकर रामरेखा भगत और उनके चार साथी एक आमके नीचे कंबल पर बैठे हुए हैं। रेखाकी भैंस बिक गई है, और अब भी वह अपनी टैंटमें उन बीस रुपयोंको जब तब देख लिया करता था। मैलैके लिये मशहूर था, कि जादूसे रुपये निकाल लेने वाले चौर आजकल बहुते आये हुए हैं। रेखाका हाथ फिर.एक बार डेंट पर गया, और इत्मीनानकै साथ उसने बात शुरू की-- | हमारी तो भैंस बिक गई । तीन महीनेसे, मौलू भाई ! खूब खिला पिलाकर तैयार किया था। बीस रुपये वैसी भैसके लिये कम दाम नहीं, हैं । किन्तु आजकल लक्षिमी आँखसे देखते देखते उड़ जाती हैं।" भौला-उड़ जाती हैं, और रुपये-पैसैको चारों ओर निकाला है। रेखा भाई। इस कम्पनीके राजमें कोई चीजमें बरक्कत नहीं है। हम मिट्टी खोदते खोदते मर जाते हैं, और एक शाम भी बाल बच्चोंको पेटभर खानेको नहीं मिलता।" | रेखा--"अभीतक तो हम हाकिमकी नजर-बेगार, अमला-फैलाकी घुस-रिश्वत में ही तबाह थे, किन्तु कमसे कम खेत तो हमारा था ?”