पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/३०३

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३०२ वोल्गासै गंगा “तुम क्या क्या किताबें लिये रात-रात पड़े रहते हो प्रिय हैं और पुस्तकें यहाँ कितनी सुलभ हैं ।' | "हमारे यहाँ भी सीसा है प्रियै ! हमारे यहाँ भी कागज है, हमारे यहाँ भी कुशल लोहार मिस्त्री है; किन्तु अभी तक पुस्तके छापना नहीं जानते । यदि छापाखाना हमारे यहाँ खुल जाये, तो ज्ञान कितना सुलभ हो जायगा । और यह जो पुस्तके मैं पढ़ रहा हूँ, इफ्तों मल्लाहोंके साथ गायब रहता हूँ, इसने मुझे निश्चयकरा दिया, कि सागर-विजयी देश विश्वविजयी होकर रहेगा। इन फिर गियों को हमारे देशवाले नहानेधोनेकी बेपर्वाहीकै कारण गदे जगली कहते हैं; किन्तु, इनकी जिज्ञासा को देखकर मन प्रशंसा किये बिना नहीं रहता। इन्होंने भूगोलके किस्से नहीं गढ़ बल्कि जाकर हर जगहकी जानकारी प्राप्तकी । इनके नक्शे मैंने तुम्हें दिखाये थे, सुरैया । "सागर मुझे कितना अच्छा लगता है, कमल ! अच्छा ही नहीं सुरैया | सागर ही हाथोंमें देशों का जीवन होगा ।” । तुमने देखा है, इन लकड़ीके जहाजपर लगी, तोपोंको। ये चलते फिरते किले हैं। मंगोलों को उनके घोड़ोंने जिताया था और बारूदने भी । अब दुनिया में जिसके पास वै युद्धपोत होंगे, वहीं जीतेगी । इसीलिये मैने इस विद्याको सीखना है किया, सुरैया । । कमल और सुरैयाकी इच्छा पूरी नहीं हुई। वह भारतके लिये रवाना हुए किन्तु, समुद्री डाकुओका युग था । सूरत पहुँचनेसे दो दिन पहिले उनके जहाज पर समुद्री डाकुओंने इमला किया। अपने दूसरे साथियोंके साथ मिलकर कमलने भी अपनी तोपों और बंदुकको डाकुओंके ऊपर भिड़ा दिया । किन्तु डाकू संख्यामें अधिक थे। कमलका जहाज तोपके गोलेसे जर्जर हो जल-निमम होने लगा । सुरैय्या उसके पास थी, और उसके मुस्कुराते ओठोंपर अन्तिम शब्द थे—“सागर-विजय ।'