पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/३०

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दिवा और वह उसके लिए झूठ नहीं बोल सकता । झूठ अभी मानवके लिए अपरिचित और अत्यन्त कठिन विद्या थी। शिकारियोंने अपने जनके पास सूचना पहुँचाई, वह जन-युर (जनके झोंपड़े )से हथियारबन्द हौ निकले । उषा-जन वस्तुतः न्याय चाहता था, वह सिर्फ अपने मृगया क्षेत्रको रक्षा करना चाहता था, किन्तु उसके अ-मित्र इस न्यायके लिए तैयार न थे। उषा-जनके मृगया-क्षेत्रमें दोनों जनोंका युद्ध हुआ । चकमक पत्थरके तीक्ष्ण फलवाले बाण सन्-सन् बरस रहे थे, पाषाणपरशु खप-खम् एक दूसरे पर चल रहे थे। वे भालों और मुग्दरोंसे एक दूसरे पर प्रहार कर रहे थे । हथियार टूट या छूट जाने पर भट और भटानियाँ हाथों, दातों, और नीचे पड़े पत्थरोंसे लड़ रहे थे। निशा-जनकी संख्या उषा-अनकी संख्यासे दूनी थी इसलिए उस पर विजय पाना उग्रा-जनके लिए असम्भव था। किन्तु, लड़ना जरूरी था, और तब तक जब तक कि एक बच्चा भी रह जाये । लड़ाई पहर भर दिन चढे शुरू हुई थी। जंगलमें उषा-जनके दो-तिहाई लोग मारे जा चुके थे-हाँ घायल नही मारे, जनोकै युद्धमें घायल शत्रुको छेड़ना भारी अधर्म है। बाकी एक-तिहाईने वौलगाके तट पर लड़ते हुए प्राण दिया। वृद्धों और बच्चों सहित माताओंने दम ( घर ) छोड़ भागना चाहा, किन्तु अब समय बीत चुका था। निशा-जनके बर्वर नर-नारियोंने उन्हें खदेड़-खदेड़ कर पकड़ा, दूध-मुँहें बच्चों को पत्थरों पर पटका, बूढों और बूढ़ियोंके गलेमें पत्थर बाँध कर वोल्गामे डुबाया । दमके भीतर रखे माँस फल, मधु, सुरा तथा दूसरे सामानको बाहर निकाल बाकी बचे बच्चों और स्त्रियोंको झोपड़ेके भीतर बन्द कर आग लगा दी। पोरिसों उछलती ज्वालाके भीतर उठते प्राणियोंके अंदनका आनन्द लेते, निशा-जनने अग्निदेवको धन्यवाद दिया फिर शत्रु-संचित माँस और सुरासे अपने देव तथा अपनैको तृप्त किया। जन-नायिका दिवा बहुत खुश थी। उसने तीन माताओंकी छाती से छीनकर उनके बच्चोंको पत्थर पर पटका, जब उनकी खोपड़ीके फटने