पृष्ठ:वोल्गा से गंगा.pdf/२९१

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२६० बोललासे गंगा बीरबल-अबे फलला ! जाने दे, मैं सैठ छदामीमलक तरहका मक्खीचूस नहीं हूँ ।” अबुल फज़ल-नहीं, यदि बीक! मुझपर नाहक़ नाराज़ न हो । और भाई ! तेरे किस्सोंसे मैं बहुत डरता हूँ। बीरबल-हाँ, मैंने ही न आईने-अकबरी जैसा पोथा लिखकर रख दिया है।" अबुल फज़ल-- आईने-अकबरीके गढ़ने वाले कितने मिलेंगे, भई टोडू ! तु ही ईमान धरमसे कह; और कितने होंगे बीरबलके किस्सोको दुहराने वाले ? टोडरमल--यह बीरू भी जानता है ।। अबुल् फ़ज़ल- अच्छा, बीरू ! अपने अशर्फी वाले किसी किस्से को भी तो सुना ।” बीरबल-“लेकिन, तुम सबने तो पहले ही है कर लिया है, कि यह क़िस्सा मेरी अशर्फी का नहीं बल्कि मेरे दिमाग का होगा ।” अकबर–लेकिन, बिना बतलाये भी हम परख सकते हैं, कौन असली सिक्का हैं, कौन खोटा । बीरबल--"गोया मेरे हर किस्सेपर ठप्पा लगा रहता है। अच्छा भाई ! तुम्हारी मौज, किस्सा तो सुना ही देता हूँ, किन्तु, सक्षेपमें सिर्फ मतलबकी बात । अकबरको एक बार बहुत शौक हुआ हिन्दू बनने का । उसने बीरबलसे कहा। बीरबल बड़े सकट में पड़ा । बादशाहसे नहीं भी नहीं कर सकता था, और हिन्दू बनानेका उसे क्या अधिकार था १ कई दिन गायब रहा। एक दिन शामको बादशाह महलकी खिड़कीके पास 'हिङ्--छो- 'हिछ–छो- की आवाज़ ज़ोर जोर से सुनाई दी। बादशाहको यहाँ और इस वक्त कभी कपड़ा धोनेकी आवाज़ नहीं सुनाई पड़ी थी । उसका कौतूहल बढ़ा। वह एक मज़दूर का कपड़ा पहिन जमुनाके किनारे गया । कितना ही रूप क्यों न बदली हो, बादशाह बीरूको पहिचानेमें ग़लती नहीं कर सकता । और वह